A Death in the Gunj: Full Movie Recap, Iconic Quotes & Hidden Facts

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Written By moviesphilosophy

Release date: 2016 (India)

Director: Konkona Sen Sharma

Starring: Vikrant MasseyKalki KoechlinRanvir ShoreyTillotama ShomeGulshan DevaiahJim SarbhOm PuriTanuja

Producers: Honey TrehanAshish BhatnagarAbhishek Chaubey · See more

Languages: EnglishHindi

Running time: 1h 50m

Genres: DramaThrillerSuspenseMystery

मूवीज़ फिलॉसफी पॉडकास्ट में आपका स्वागत है!

नमस्ते दोस्तों, स्वागत है हमारे पॉडकास्ट ‘मूवीज़ फिलॉसफी’ में, जहां हम सिनेमा की गहराइयों में उतरते हैं और कहानियों को नए नजरिए से देखते हैं। मैं आपका होस्ट, एक अनुभवी फिल्म समीक्षक, आज आपके लिए लेकर आया हूं एक ऐसी फिल्म की कहानी, जो न सिर्फ मन को झकझोरती है, बल्कि आत्मा को भी छू जाती है। हम बात कर रहे हैं 2016 में रिलीज़ हुई फिल्म “ए डेथ इन द गंज” की, जिसे कोनकोना सेन शर्मा ने लिखा और निर्देशित किया है। यह उनकी पहली निर्देशकीय फिल्म है, और इसने 63वें फिल्मफेयर अवॉर्ड्स में आठ नामांकन हासिल किए, जिसमें कोनकोना को बेस्ट डेब्यू डायरेक्टर का अवॉर्ड भी मिला। इस फिल्म में विक्रांत मैसी, तिलोत्तमा शोम, ओम पुरी, तनुजा, गुलशन देवैया, कल्कि कोचलिन, जिम सरभ और रणवीर शौरी जैसे शानदार कलाकारों ने अभिनय किया है। तो चलिए, इस फिल्म की कहानी में गोता लगाते हैं और इसके भावनात्मक रंगों को करीब से देखते हैं।

परिचय: एक पुरानी दुनिया की उदास कहानी

“ए डेथ इन द गंज” हमें ले जाती है 1979 के मैक्लस्कीगंज, बिहार (अब झारखंड) में, एक पुराने एंग्लो-इंडियन शहर में, जहां समय जैसे ठहर सा गया है। फिल्म की शुरुआत ही हमें चौंका देती है, जब हम देखते हैं कि दो लोग, नंदू और ब्रायन, एक कार के ट्रंक में एक लाश को देख रहे हैं और यह सोच रहे हैं कि इसके साथ क्या किया जाए। कार के पीछे की सीट पर एक तीसरा शख्स, श्यामल उर्फ शूतु, बैठा है। यह दृश्य हमें अंदर तक हिला देता है, और फिर कहानी एक हफ्ता पीछे चली जाती है, जहां से इस त्रासदी की जड़ें समझ में आती हैं। यह फिल्म सिर्फ एक कहानी नहीं, बल्कि अकेलेपन, उपेक्षा और भावनात्मक टूटन की एक गहरी पड़ताल है।

कहानी: शूतु का अकेलापन और परिवार की बेरुखी

कहानी शुरू होती है कोलकाता से मैक्लस्कीगंज पहुंचे एक परिवार के साथ। नंदू (रणवीर शौरी), उसकी पत्नी बोनी (तिलोत्तमा शोम), उनकी बेटी तानी, बोनी की दोस्त मिमी (कल्कि कोचलिन) और नंदू का चचेरा भाई श्यामल उर्फ शूतु (विक्रांत मैसी) नंदू के माता-पिता के घर छुट्टियां मनाने आते हैं। बाद में नंदू के दोस्त विक्रम (गुलशन देवैया) और ब्रायन (जिम सरभ) भी वहां पहुंचते हैं। शूतु इस कहानी का केंद्र बिंदु है – एक संवेदनशील, कोमल दिल वाला युवा, जो हाल ही में अपने पिता को खो चुका है और अपनी परीक्षा में असफल भी हुआ है। स्कूल में टॉपर रहा शूतु अब टूटा हुआ सा है, और परिवार व दोस्तों के मज़ाक व ताने उसकी इस पीड़ा को और बढ़ा देते हैं।

शूतु की सबसे करीबी दोस्त है छोटी तानी, जो उससे बहुत प्यार करती है। नंदू की मां (तनुजा) भी उसका ध्यान रखती हैं, लेकिन बाकी लोग उसे अक्सर नजरअंदाज कर देते हैं। जैसे-जैसे दिन बीतते हैं, शूतु का अकेलापन गहराता जाता है। एक दिन कबड्डी खेलते वक्त विक्रम की आक्रामकता के चलते वह चोटिल हो जाता है। इस बीच, उसे मिमी से आकर्षण महसूस होता है और दोनों के बीच शारीरिक संबंध बनते हैं। शूतु को लगता है कि मिमी उससे प्यार करती है, लेकिन मिमी के लिए यह सिर्फ एक क्षणिक रिश्ता है। वह असल में विक्रम की ओर आकर्षित है।

एक दिन, जब शूतु मिमी के साथ मोटरसाइकिल पर घूमने जाता है, तानी उससे नाराज होकर घर से भाग जाती है। शूतु को इस बात का गहरा अफसोस होता है, क्योंकि तानी उसकी सबसे करीबी थी। वह और नंदू तानी को ढूंढने निकलते हैं, लेकिन इस दौरान शूतु एक गहरे गड्ढे में गिर जाता है। नंदू उसे अकेला छोड़कर चला जाता है। घर पहुंचने पर पता चलता है कि विक्रम ने तानी को सुरक्षित ढूंढ लिया है। सभी राहत महसूस करते हैं, लेकिन किसी को शूतु की चिंता नहीं होती। काफी देर बाद एक नौकर उसे ढूंढता है, लेकिन तब तक शूतु पूरी तरह टूट चुका है। वह कहता है, “मुझे तो कोई ढूंढने भी नहीं आया… क्या मैं इतना भी मायने नहीं रखता?” यह डायलॉग उसके अंदर की पीड़ा को बयान करता है।

थीम्स: अकेलापन, उपेक्षा और मानसिक स्वास्थ्य

“ए डेथ इन द गंज” अकेलेपन और मानसिक स्वास्थ्य जैसे गंभीर मुद्दों को छूती है। शूतु का किरदार हमें दिखाता है कि कैसे छोटी-छोटी उपेक्षाएं किसी को अंदर से तोड़ सकती हैं। वह बार-बार कहता है, “मैं बस ठीक होना चाहता हूं, लेकिन कोई समझता ही नहीं।” यह डायलॉग हमें उसके संघर्ष की गहराई तक ले जाता है। फिल्म यह भी दिखाती है कि परिवार और दोस्त, जो हमारे सबसे बड़े सहारे होने चाहिए, वही कभी-कभी हमें सबसे ज्यादा चोट पहुंचा सकते हैं। शूतु की कहानी हमें सिखाती है कि संवेदनशीलता और ध्यान कितना महत्वपूर्ण है।

चरमोत्कर्ष: एक त्रासदी जो हिला देती है

अगले दिन, शूतु कोलकाता वापस जाने का टिकट खरीद लेता है। वह मिमी से कहता है कि वह जल्दी वापस आएगा और उनसे मिलेगा, लेकिन मिमी उसे ठंडे लहजे में कहती है कि वह अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे। शूतु बाहर जाता है, जहां वह देखता है कि सभी एक-दूसरे की कंपनी में खुश हैं। नंदू के पिता ओ.पी. (ओम पुरी) उसे अपनी पुरानी राइफल से निशाना लगाना सिखा रहे हैं। शूतु की नजरें मिमी और विक्रम पर टिकती हैं, जो एक-दूसरे के साथ हंस रहे हैं। वह खुद को पूरी तरह अदृश्य, अनचाहा और अप्रिय महसूस करता है। उसका मन चीख उठता है, “क्या मेरी कोई कीमत ही नहीं? क्या मैं सिर्फ एक मज़ाक हूं?”

अचानक, एक हफ्ते की चुप्पी और टूटन के बाद, शूतु का गुस्सा फट पड़ता है। वह ओ.पी. से राइफल छीन लेता है और पहले उन्हें, फिर बाकियों पर तान देता है। सभी घबरा जाते हैं और उसे शांत करने की कोशिश करते हैं। नंदू चिल्लाता है, “शूतु, राइफल नीचे कर, हम सब तेरे साथ हैं!” लेकिन शूतु की आंखों में अब कोई उम्मीद नहीं बची है। वह राइफल को अपनी ठोड़ी के नीचे रखता है और ट्रिगर खींच देता है। यह दृश्य इतना मार्मिक है कि दर्शक सन्न रह जाते हैं। शूतु की मौत सिर्फ एक घटना नहीं, बल्कि उसकी अनसुनी पीड़ा का प्रतीक है।

फिल्म का अंत उसी शुरुआती दृश्य के साथ होता है, जहां नंदू और ब्रायन शूतु की लाश को कार के ट्रंक में ले जा रहे हैं, और शूतु की आत्मा पीछे की सीट पर बैठी है। क्रेडिट्स के दौरान सड़क का दृश्य उसकी नजरों से दिखाया जाता है, जो हमें एक गहरे खालीपन का एहसास कराता है।

निष्कर्ष: एक कहानी जो सिखाती है

“ए डेथ इन द गंज” सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि एक आईना है जो हमें अपने आसपास के लोगों की भावनाओं को समझने के लिए मजबूर करती है। शूतु का किरदार हमें याद दिलाता है कि हर इंसान की अपनी लड़ाई होती है, और हमें उनके प्रति संवेदनशील होना चाहिए। कोनकोना सेन शर्मा ने अपनी पहली फिल्म में ही इतनी गहरी कहानी को इतनी खूबसूरती से पेश किया है कि यह फिल्म हर उस इंसान को छूती है जो कभी अकेलापन महसूस कर चुका है। विक्रांत मैसी ने शूतु के किरदार को इतनी सच्चाई से निभाया है कि उनकी हर सांस, हर आंसू हमें महसूस होता है। फिल्म का एक डायलॉग जो शूतु की आत्मा को बयान करता है, वह है, “मैं चीखना चाहता हूं, लेकिन मेरी आवाज़ किसी को सुनाई ही नहीं देती।”

तो दोस्तों, यह थी “ए डेथ इन द गंज” की कहानी, एक ऐसी फिल्म जो हमें हंसाती नहीं, बल्कि सोचने पर मजबूर करती है। अगर आपने यह फिल्म नहीं देखी, तो जरूर देखें और अपने आसपास के लोगों को समझने की कोशिश करें। ‘मूवीज़ फिलॉसफी’ के इस एपिसोड को सुनने के लिए धन्यवाद, और अगली बार फिर मिलते हैं एक नई कहानी के साथ। तब तक, सिनेमा को महसूस कीजिए, जिंदगी को समझिए। नमस्ते!

फिल्म की खास बातें

कॉनकणा सेन शर्मा द्वारा निर्देशित फिल्म “अ डेथ इन द गुंज” एक अद्वितीय और गहन अनुभव है, जिसे कई लोग अब भी अनदेखा कर चुके हैं। इस फिल्म की कहानी 1979 के मैक्लुस्कीगंज में सेट है और यह अपने समय की जटिलताओं को दर्शाती है। एक दिलचस्प तथ्य यह है कि यह फिल्म एक सच्ची घटना से प्रेरित है, जो खुद कॉनकणा के परिवार में घटी थी। यह फिल्म उनकी पहली निर्देशित फिल्म है और इसे 2016 के टोरंटो इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में प्रीमियर किया गया था, जहां इसे काफी सराहना मिली।

फिल्म के निर्माण के दौरान, कलाकारों के बीच का तालमेल विशेष रूप से उल्लेखनीय था। विक्रांत मैसी, जो फिल्म में श्याम के किरदार में हैं, ने अपने रोल के लिए काफी मेहनत की। फिल्म में श्याल की भावनात्मक यात्रा को दर्शाने के लिए विक्रांत ने खुद को मानसिक और शारीरिक रूप से तैयार किया। फिल्म की शूटिंग के दौरान, मैक्लुस्कीगंज के प्राकृतिक वातावरण और पुराने बंगलों ने एक जीवंत पृष्ठभूमि प्रदान की, जो कहानी के भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं को और भी प्रबल बनाती है।

फिल्म में कई ईस्टर एग्स छुपे हुए हैं, जो दर्शकों के लिए खोजने में मज़ेदार हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, फिल्म में मौजूद पुरानी गाड़ियों और कास्ट्यूम्स को विशेष रूप से उस समय के अनुसार तैयार किया गया है, ताकि 1970 के दशक का सही अहसास हो सके। इसके अलावा, फिल्म में बारीकी से देखे जाने वाले कुछ दृश्य, जैसे कि श्याल का डिनर टेबल पर चुपचाप बैठना, उनके मानसिक संघर्ष और आंतरिक उथल-पुथल को दर्शाता है।

मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से, “अ डेथ इन द गुंज” मनुष्य के मानसिक स्वास्थ्य और सामाजिक दबावों के बीच के संघर्ष को दर्शाती है। श्याल का किरदार एक संवेदनशील युवा के मानसिक तनाव को प्रकट करता है, जिसे उसके परिवार और दोस्तों द्वारा समझा नहीं जाता। यह फिल्म दर्शकों को यह सोचने पर मजबूर करती है कि कैसे हम अपने करीबी लोगों की भावनाओं को नजरअंदाज कर देते हैं और उनके मानसिक स्वास्थ्य पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है।

फिल्म की रिलीज़ के बाद, इसे समीक्षकों द्वारा काफी सराहा गया और इसे भारतीय सिनेमा में एक महत्वपूर्ण योगदान के रूप में देखा गया। “अ डेथ इन द गुंज” ने न केवल एक सशक्त कहानी पेश की, बल्कि नए और उभरते कलाकारों को भी मंच प्रदान किया। यह फिल्म उन कुछ चुनिंदा भारतीय फिल्मों में से एक है जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी छाप छोड़ने में सफल रही है।

इस फिल्म का प्रभाव और विरासत लंबे समय तक महसूस किया जाएगा, क्योंकि यह एक ऐसी कहानी को प्रस्तुत करती है जो समय के साथ और भी प्रासंगिक होती जा रही है। मानसिक स्वास्थ्य और पारिवारिक संबंधों पर इसके गहरे दृष्टिकोण ने इसे दर्शकों के दिलों में एक विशेष स्थान दिलाया है। “अ डेथ इन द गुंज” ने न केवल कॉनकणा सेन शर्मा को एक कुशल निर्देशक के रूप में स्थापित किया, बल्कि यह भी साबित किया कि भारतीय सिनेमा में कहानी कहने के नए तरीके खोजे जा सकते हैं।

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