Bheed: Full Movie Recap, Iconic Quotes & Hidden Facts in Hindi

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Written By moviesphilosophy

निर्देशक

फिल्म “भीड़” का निर्देशन अनुभवी फिल्मकार अनुभव सिन्हा ने किया है, जो सामाजिक मुद्दों पर आधारित फिल्मों के लिए प्रसिद्ध हैं।

मुख्य कलाकार

“भीड़” के मुख्य कलाकारों में राजकुमार राव और भूमि पेडनेकर शामिल हैं, जिन्होंने अपनी अभूतपूर्व अभिनय क्षमताओं के लिए कई पुरस्कार जीते हैं।

निर्माता

इस फिल्म का निर्माण अनुभव सिन्हा और भूषण कुमार द्वारा किया गया है, जो बॉलीवुड में कई सफल परियोजनाओं के लिए जाने जाते हैं।

संगीत

फिल्म का संगीत म्यूजिक डायरेक्टर एम.एम. क्रीम द्वारा दिया गया है, जिन्होंने कई हिट गाने बनाए हैं।

रिलीज़ वर्ष

“भीड़” का प्रदर्शन वर्ष 2023 में हुआ, और इसे दर्शकों द्वारा उत्सुकता से प्रतीक्षित किया गया था।

कहानी की थीम

फिल्म “भीड़” एक सामाजिक ड्रामा है, जो समाज में व्याप्त विभिन्न ज्वलंत मुद्दों को उजागर करती है, और दर्शकों को सोचने पर मजबूर करती है।

मूवीज़ फिलॉसफी में आपका स्वागत है!

नमस्ते दोस्तों, स्वागत है हमारे पॉडकास्ट ‘मूवीज़ फिलॉसफी’ में, जहां हम भारतीय सिनेमा की गहराई में उतरते हैं और उन कहानियों को आपके सामने लाते हैं, जो न सिर्फ मनोरंजन करती हैं, बल्कि सोचने पर मजबूर भी करती हैं। आज हम बात करेंगे एक ऐसी फिल्म की, जो 2020 के लॉकडाउन के दौरान भारत के प्रवासी मजदूरों की दर्दनाक कहानी को पर्दे पर उतारती है। फिल्म का नाम है भीड़, जिसे अनुभव सिन्हा ने निर्देशित किया है। यह फिल्म न सिर्फ एक कहानी है, बल्कि एक कड़वी सच्चाई का आईना है, जो हमें हमारे समाज की गहरी खामियों और मानवीय संवेदनाओं से रूबरू कराती है। तो चलिए, इस फिल्म की कहानी में गोता लगाते हैं और समझते हैं कि कैसे एक पुलिस चेकपोस्ट पर टकराईं कई जिंदगियां, कई संघर्ष, और कई सपने।

परिचय: लॉकडाउन की त्रासदी और भीड़ की पृष्ठभूमि

भीड़ की कहानी 24 मार्च 2020 से शुरू होती है, जब भारत सरकार ने कोरोना वायरस के प्रसार को रोकने के लिए देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा की थी। लेकिन इस लॉकडाउन ने उन लाखों प्रवासी मजदूरों को बेसहारा कर दिया, जो रोज़ाना की मज़दूरी पर निर्भर थे। ट्रांसपोर्ट की कमी के चलते उन्हें अपने गांवों तक पहुंचने के लिए हजारों किलोमीटर पैदल चलना पड़ा। रेलवे ट्रैक पर सोचकर कि ट्रेनें बंद हैं, कई लोग विश्राम के लिए रुके, लेकिन वहां उनकी जिंदगी का अंत हो गया। फिल्म की शुरुआत ही इस त्रासदी से होती है, जहां ट्रेन की पटरियों पर मरने वाले प्रवासियों की मौत हमें झकझोर देती है। कहानी का केंद्र है तेजपुरा का एक पुलिस चेकपोस्ट, जहां सूर्या (राजकुमार राव) पहली बार ऑफिसर इन चार्ज बना है। वह अपने सीनियर इंस्पेक्टर यादव (अशुतोष राणा) को प्रभावित करना चाहता है और किसी भी कीमत पर राज्य की सीमाओं को पार करने से रोकने का आदेश मानने को तैयार है। लेकिन यह चेकपोस्ट सिर्फ एक सीमा रेखा नहीं, बल्कि कई जिंदगियों, जातीय भेदभाव, और मानवीय संकटों का संगम बन जाता है।

कहानी का विस्तार: टकराव और संघर्ष की कई परतें

सूर्या एक निचली जाति से ताल्लुक रखता है, जिसे भारत में ‘टिकास’ समुदाय कहा जाता है। उसने और उसके परिवार ने जीवन भर जातिवाद का सामना किया है। इसीलिए उसके पिता ने अपनी पहचान से अंतिम नाम हटा लिया, ताकि भविष्य में भेदभाव से बचा जा सके। सूर्या की प्रेमिका डॉ. रेणु (भूमि पेडनेकर) एक ऊंची जाति से है, और दोनों शादी करना चाहते हैं। लेकिन सूर्या को डर है कि रेणु का परिवार उसे कभी स्वीकार नहीं करेगा। एक दिन रेणु उसे चेतावनी देती है, “सूर्या, अगर तुमने कुछ नहीं किया, तो पापा मुझे जबरदस्ती किसी और से शादी करवा देंगे।” सूर्या जवाब में कहता है, “रेणु, हम निचली जाति वालों ने हमेशा अपने हक के लिए लड़ाई लड़ी है। इस बार भी मुझे ही गालियां पड़ेंगी, और सारा हंगामा तुम्हारे पिता मचाएंगे।” यह डायलॉग सूर्या के भीतर के संघर्ष को बयान करता है।

चेकपोस्ट पर कई कहानियां एक साथ चलती हैं। त्रिवेदी (पंकज कपूर) एक सिक्योरिटी गार्ड है, जो अपने गांव लौटना चाहता है। उसका भाई कोरोना से संक्रमित है, लेकिन त्रिवेदी वैज्ञानिक तथ्यों को नकारते हुए मानता है कि गांव पहुंचते ही सब ठीक हो जाएगा। वह अपनी ऊंची जाति का रौब दिखाता है और सूर्या से भेदभाव करता है। एक बार गुस्से में वह सूर्या पर चिल्लाता है, “तू कौन होता है मुझे रोकने वाला? तेरी औकात क्या है?” सूर्या शांत लेकिन दृढ़ स्वर में जवाब देता है, “औकात तो वक्त तय करता है, त्रिवेदी जी। आज मैं यहां खड़ा हूं, तो मेरी ड्यूटी है आपको रोकना।” यह डायलॉग सूर्या के आत्मसम्मान को दर्शाता है। त्रिवेदी मुस्लिम समुदाय के लोगों को भी निशाना बनाता है, उन्हें कोरोना फैलाने का दोषी ठहराता है, लेकिन बाद में जब भूख उसे तोड़ देती है, वह उसी मुस्लिम बुजुर्ग से खाना मांगता है, जिसे उसने पहले अपमानित किया था।

दूसरी ओर, एक मां (दिया मिर्ज़ा) अपनी बेटी तक पहुंचने की कोशिश में है, जबकि उसका ड्राइवर कन्हैया (सुशील पांडे) उसकी मदद करता है। एक लड़की (अदिति सुबेदी) अपने शराबी पिता (ओमकार दास माणिकपुरी) को गांव ले जाने के लिए संघर्ष कर रही है, लेकिन पिता की स्वार्थी हरकतों से तंग आकर वह उसे छोड़ देती है। पत्रकार विद्या प्रभाकर (कृतिका कामरा) चेकपोस्ट पर सरकार की लापरवाही और उत्पीड़न को उजागर करने के लिए साक्षात्कार ले रही है। ये सारी कहानियां एक-दूसरे से टकराती हैं, जब सूर्या को अपने कर्तव्य और मानवता के बीच चुनाव करना पड़ता है।

चरमोत्कर्ष: टूटते बंधन और मानवता की जीत

जैसे-जैसे हालात बिगड़ते हैं, सूर्या अपने सीनियर यादव से पास के मॉल को प्रवासियों के लिए आश्रय स्थल बनाने की गुहार लगाता है। लेकिन यादव का जातिवादी रवैया सामने आता है। वह ताने मारते हुए कहता है, “मॉल बनने के बाद तो तुम जैसे लोग अंदर नहीं घुस सकते, सूर्या। बस बनाने के वक्त ही तुम्हारी इजाजत है।” यह डायलॉग भारतीय समाज में गहरे बैठे जातिवाद की कड़वी सच्चाई को उजागर करता है। उधर, त्रिवेदी सूर्या को धमकी देता है कि अगर उसे मॉल से खाना नहीं मिला, तो वह जबरदस्ती ले लेगा। रेणु सूर्या को समझाती है कि त्रिवेदी गलत नहीं है, और उसकी न्याय की परिभाषा ऊंची जाति वालों से अलग होनी चाहिए।

स्थिति तब और बेकाबू हो जाती है, जब यादव खुद अतिरिक्त पुलिस बल लेकर चेकपोस्ट पहुंचता है। त्रिवेदी मॉल में घुसकर खाना चुराने की कोशिश करता है और पुलिस की बर्बरता का शिकार बनता है। सूर्या उसे बचाने के लिए एक नकली बंधक स्थिति बनाता है, जिसमें वह खुद त्रिवेदी का बंधक बनता है। दोनों एक बाइक पर भागते हैं, लेकिन जब सूर्या को लगता है कि पुलिस दूर है, वह त्रिवेदी को भाग जाने की सलाह देता है। त्रिवेदी गुस्से में कहता है, “मैंने तो बस खाना, पानी और छत मांगी थी। ये कौन सा गुनाह है कि मुझे भागना पड़ रहा है?” सूर्या का जवाब गहरा है, “गुनाह नहीं, त्रिवेदी जी। लेकिन हम जैसे लोगों को हक मांगने की सजा हमेशा मिलती आई है।” यह डायलॉग फिल्म की भावनात्मक गहराई को और बढ़ाता है।

अंत में, यादव सूर्या को पकड़ लेता है और राम सिंह त्रिवेदी को। सूर्या यादव से साफ कह देता है कि वह अपनी जाति के कारण किसी के सामने नहीं झुकेगा। वह कहता है, “मैं उस खानदान में पैदा हुआ हूं, जो हमेशा लड़ता आया है। आपकी जाति की सत्ता मुझे नहीं तोड़ सकती।” हालांकि उसे अपनी नौकरी गंवाने का डर है, फिर भी वह दिन के अंत तक चेकपोस्ट को बनाए रखता है और मॉल से खाना लाकर प्रवासियों को खिलाता है। लेकिन उसकी लड़ाई यहीं खत्म नहीं होती। उसे रेणु से शादी के बाद भी जातीय हिंसा का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा।

निष्कर्ष: एक कड़वी सच्चाई का आईना

भीड़ सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि आधुनिक भारत के इतिहास के एक भयावह अध्याय की याद दिलाती है। यह फिल्म हमें जातिवाद, धार्मिक भेदभाव, और सरकारी लापरवाही के उन काले पहलुओं से रूबरू कराती है, जिन्होंने लॉकडाउन के दौरान लाखों लोगों की जिंदगी तबाह कर दी। फिल्म की थीम्स हमें यह सवाल करने पर मजबूर करती हैं कि क्या हमारा समाज सच में इतना आगे बढ़ गया है, जितना हम दावा करते हैं? सूर्या की कहानी हमें सिखाती है कि मानवता से बड़ा कोई कर्तव्य नहीं, और त्रिवेदी का परिवर्तन हमें बताता है कि संकट के समय इंसानियत ही सबसे बड़ी ताकत है।

तो दोस्तों, भीड़ एक ऐसी फिल्म है, जो हमें सोचने पर मजबूर करती है। अगर आपने इसे नहीं देखा, तो जरूर देखें और हमें बताएं कि इस कहानी ने आपको कैसा महसूस कराया। अगले एपिसोड तक, मूवीज़ फिलॉसफी से विदा लेते हैं। नमस्ते!

फिल्म की खास बातें

फिल्म ‘भीड़’ के बारे में कई ऐसी रोचक जानकारियाँ हैं जो दर्शकों के लिए नई हो सकती हैं। इस फिल्म का निर्देशन अनुभव सिन्हा ने किया है, जो पहले ‘मुल्क’ और ‘आर्टिकल 15’ जैसी फिल्मों के लिए जाने जाते हैं। ‘भीड़’ के निर्माण के दौरान, टीम ने वास्तविक जीवन की घटनाओं से प्रेरणा ली, जो इसे और भी प्रभावशाली बनाता है। फिल्म की शूटिंग के लिए, कई वास्तविक स्थानों का चयन किया गया था ताकि यथासंभव प्रामाणिकता बनी रहे। इसके लिए टीम ने कई बार इन स्थानों पर जाकर स्थानीय लोगों से बातचीत की और उनके अनुभवों को फिल्म में शामिल किया।

फिल्म के पीछे के दृश्यों की बात करें तो, ‘भीड़’ के सेट पर काफी अनुशासन देखा गया। निर्देशक अनुभव सिन्हा ने यह सुनिश्चित किया कि हर कलाकार अपने किरदार को समझकर उसे पूरी ईमानदारी से निभाए। इसके लिए उन्होंने कलाकारों के साथ कई कार्यशालाएँ आयोजित कीं। फिल्म की शूटिंग के दौरान, एक विशेष दृश्य के लिए, टीम को चार दिनों तक रात में शूटिंग करनी पड़ी, जिससे कलाकारों को असली थकान महसूस हो सके और वह दृश्य और प्रभावशाली लगे।

फिल्म में कई ईस्टर एग्स छिपे हुए हैं जो ध्यान से देखने पर ही नजर आते हैं। उदाहरण के लिए, एक दृश्य में फिल्म का एक पात्र एक पुरानी हिंदी फिल्म का पोस्टर देखता है, जो उस समय की सामाजिक स्थिति का प्रतीक है। इसके अलावा, फिल्म में कई संवाद ऐसे हैं, जिन्हें अगर ध्यान से सुना जाए तो वे पिछली फिल्मों के संदर्भ देते हैं। ये छोटे-छोटे तत्व फिल्म को और भी गहराई देते हैं और देखने वालों को सोचने पर मजबूर कर देते हैं।

फिल्म ‘भीड़’ के पीछे की मनोविज्ञान को समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि यह फिल्म सामाजिक न्याय और असमानताओं पर आधारित है। अनुभव सिन्हा ने इस फिल्म के माध्यम से दिखाया है कि कैसे एक समाज में विभिन्न वर्गों के बीच की खाई किस तरह से मानवता को प्रभावित करती है। फिल्म में दिखाए गए किरदारों के मनोविज्ञान को समझने के लिए निर्देशक ने समाजशास्त्री और मनोवैज्ञानिकों की मदद ली, ताकि वे अपने पात्रों को और भी गहराई से समझ सकें।

फिल्म ‘भीड़’ का प्रभाव और उसकी विरासत भी कम नहीं है। इस फिल्म ने दर्शकों को न सिर्फ मनोरंजन दिया बल्कि सामाजिक मुद्दों पर सोचने के लिए भी मजबूर किया। फिल्म के रिलीज होने के बाद, यह कई चर्चाओं का विषय बनी और कई पुरस्कारों के लिए नामांकित भी हुई। इसने फिल्म इंडस्ट्री में सामाजिक मुद्दों पर आधारित फिल्मों के लिए एक नया मानक स्थापित किया।

फिल्म ने समाज में एक नई चर्चा को जन्म दिया, जिसमें लोग अपने अधिकारों और समाज में व्याप्त असमानताओं पर बात करने लगे। इसके अलावा, ‘भीड़’ ने अन्य फिल्म निर्माताओं को भी प्रेरित किया कि वे भी सामाजिक मुद्दों पर आधारित फिल्मों का निर्माण करें। इस प्रकार, यह फिल्म अपने आप में एक आंदोलन का हिस्सा बन गई, जो दर्शकों को सोचने और बदलाव की दिशा में प्रेरित करती है।

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