“दो बीघा ज़मीन” (1953) बिमल रॉय द्वारा निर्देशित एक क्लासिक भारतीय फ़िल्म है, जो सामाजिक यथार्थवाद को प्रमुखता से प्रस्तुत करती है। यह फ़िल्म बंगाली लेखक रवींद्रनाथ ठाकुर की कविता “दुई बिगहा जोमी” से प्रेरित है। फ़िल्म की कहानी शंभू महतो (बलराज साहनी) के इर्द-गिर्द घूमती है, जो एक गरीब किसान है और अपनी पैतृक दो बीघा ज़मीन को बचाने के लिए संघर्ष करता है। शंभू और उसका परिवार एक छोटे से गाँव में रहते हैं, जहाँ उनकी ज़मीन पर एक अमीर ज़मींदार की नज़र है, जो वहाँ एक मिल बनाना चाहता है। जब शंभू अपनी ज़मीन बचाने के लिए पैसे जुटाने की कोशिश करता है, तो उसे अपने बेटे के साथ कलकत्ता जाना पड़ता है, जहाँ वे रिक्शा चलाकर पैसे कमाने की कोशिश करते हैं।
फ़िल्म में शहरी और ग्रामीण जीवन के बीच का अंतर बखूबी दर्शाया गया है। शंभू का संघर्ष केवल आर्थिक नहीं, बल्कि भावनात्मक और सामाजिक भी है। शहर में, वह अन्याय, शोषण और अपमान का सामना करता है, लेकिन अपनी ज़मीन और परिवार के लिए उसकी इच्छाशक्ति कभी कम नहीं होती। कलकत्ता में उसके संघर्ष को बिमल रॉय ने अत्यंत संवेदनशीलता के साथ चित्रित किया है, जहाँ शंभू का सामना ऐसे समाज से होता है जो उसके जैसे गरीब लोगों के लिए कोई सहानुभूति नहीं रखता। इस दौरान शंभू का बेटा भी अपना योगदान देने की कोशिश करता है, जो उनके रिश्ते की गहराई और मजबूती को दर्शाता है।
फ़िल्म का अंत बेहद मार्मिक है, जहाँ शंभू को अपनी ज़मीन बचाने में असफलता मिलती है, लेकिन यह उसके दृढ़ संकल्प और मानवता की विजय को दर्शाता है। “दो बीघा ज़मीन” ने भारतीय सिनेमा में एक नए युग की शुरुआत की, जहाँ यथार्थवादी कथानक और सामाजिक मुद्दों को प्रमुखता से प्रस्तुत किया गया। यह फ़िल्म भारतीय सिनेमा इतिहास में एक मील का पत्थर मानी जाती है और इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सराहा गया। बिमल रॉय की निर्देशन क्षमता और बलराज साहनी के उत्कृष्ट अभिनय ने इसे सिनेमा जगत की एक अविस्मरणीय कृति बना दिया है, जो आज भी प्रासंगिक बनी हुई है।
दो बीघा ज़मीन (1953) – विस्तृत मूवी रीकैप
निर्देशक: बिमल रॉय
कलाकार: बलराज साहनी, निरूपा रॉय, रत्तन कुमार, मुराद, मीना कुमारी (कैमियो)
संगीत: सलिल चौधरी
शैली: सामाजिक यथार्थवादी ड्रामा
भूमिका
“दो बीघा ज़मीन” भारतीय सिनेमा की एक ऐतिहासिक फिल्म मानी जाती है। यह फिल्म सामाजिक यथार्थवाद पर आधारित है और भारत में किसानों की दयनीय स्थिति, ज़मींदारी व्यवस्था और गरीबी की त्रासदी को दर्शाती है।
यह कहानी एक गरीब किसान शंभू महतो (बलराज साहनी) की है, जो अपनी “दो बीघा ज़मीन” बचाने के लिए संघर्ष करता है। फिल्म न केवल एक परिवार की पीड़ा को दर्शाती है, बल्कि तत्कालीन भारतीय समाज की क्रूर सच्चाई को भी उजागर करती है।
कहानी
प्रारंभ: शंभू महतो का सुखी जीवन
शंभू महतो एक गरीब किसान है, जो अपनी पत्नी पर्वती (निरूपा रॉय) और बेटे कन्हैया (रत्तन कुमार) के साथ एक छोटे से गांव में रहता है।
- वह अपनी दो बीघा ज़मीन पर खेती करता है और इसी से अपने परिवार का पालन-पोषण करता है।
- गांव का जीवन कठिन है, लेकिन शंभू खुश है क्योंकि यह ज़मीन उसके पूर्वजों की धरोहर है।
ज़मींदार की लालच और शंभू की मजबूरी
गांव का ज़मींदार (मुराद) अपने ऐशो-आराम के लिए गांव में एक मिल (कारखाना) बनाना चाहता है।
- वह किसानों की ज़मीन हड़पकर वहां एक बड़ी फैक्ट्री लगाना चाहता है।
- शंभू की दो बीघा ज़मीन भी इस परियोजना के बीच में आती है।
शंभू पर कर्ज का दबाव:
- शंभू को अपनी ज़मीन बचाने के लिए 235 रुपये का कर्ज चुकाना होता है, जो उस समय बहुत बड़ी रकम थी।
- अगर वह यह रकम समय पर नहीं चुकाता, तो उसकी ज़मीन ज़मींदार के हाथ चली जाएगी।
- गांव में इतनी बड़ी रकम का इंतजाम करना मुश्किल होता है, इसलिए शंभू कोलकाता (कलकत्ता) जाने का फैसला करता है, ताकि वह पैसे कमा सके और अपनी ज़मीन बचा सके।
कोलकाता की कठोर सच्चाई
शंभू अपने बेटे कन्हैया के साथ कोलकाता पहुंचता है, लेकिन वहां की बेरहम और अमानवीय दुनिया उसे तोड़ देती है।
- बिना किसी कौशल के उसे रिक्शा चलाने का काम मिलता है।
- लेकिन शहर में भी हर कोई गरीबों का शोषण करता है।
- कन्हैया भी छोटी-मोटी नौकरियां करने लगता है, ताकि अपने पिता की मदद कर सके।
शहर में संघर्ष और मानवीय संवेदनाएं
1. मानवीय रिश्ते और संघर्ष:
- शंभू को कई जगह अपमान झेलना पड़ता है।
- एक अमीर महिला (मीना कुमारी) को एक दिन जब वह अपने रिक्शे पर बिठाता है, तो उसके हालात को देखकर वह रो पड़ती है।
- कन्हैया भी बूट पॉलिश करने की नौकरी करता है, लेकिन एक दिन उसकी बचत की गई पूरी रकम चोरी हो जाती है।
2. पर्वती की दुर्दशा:
- गांव में पर्वती अपने पति और बेटे के बिना संघर्ष कर रही होती है।
- वहां सूखा पड़ जाता है और गांववालों को ज़मींदार द्वारा धमकाया जाता है।
- उसे भी कई तकलीफों से गुजरना पड़ता है, लेकिन वह अपने पति की प्रतीक्षा में आशा नहीं छोड़ती।
क्लाइमैक्स: हार और निराशा
शंभू आखिरकार पैसे इकट्ठे करने में सफल हो जाता है, लेकिन जब वह गांव वापस आता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
- ज़मींदार ने उसकी ज़मीन कब्जे में ले ली होती है।
- उसकी दो बीघा ज़मीन अब मिल का हिस्सा बन चुकी होती है।
- वह अपनी ज़मीन को एक आखिरी बार देखता है, लेकिन उसके पास कुछ भी नहीं बचा होता।
अंत:
- टूटे हुए मन से, शंभू और उसका परिवार गांव छोड़कर कहीं और चला जाता है।
- फिल्म का अंतिम दृश्य दर्शकों को एक गहरी वेदना और आक्रोश से भर देता है।
फिल्म की खास बातें
1. सामाजिक यथार्थवाद का सशक्त चित्रण
- “दो बीघा ज़मीन” पहली भारतीय फिल्म थी, जिसने यथार्थवादी सिनेमा (Neo-Realism) की राह दिखाई।
- यह फिल्म इटालियन नियो-रियलिज्म से प्रभावित थी और इसमें गरीबों की वास्तविक परेशानियों को उकेरा गया था।
- शहर की बेरहमी, किसानों की दुर्दशा और अमीरों द्वारा गरीबों के शोषण को बखूबी दर्शाया गया।
2. बलराज साहनी का अभिनय
- बलराज साहनी ने रिक्शा चालक का किरदार निभाने के लिए वास्तव में कुछ दिनों तक कोलकाता में रिक्शा चलाया था, जिससे उनका अभिनय बेहद प्रामाणिक लगा।
- उनकी आंखों के भाव, संघर्ष और पीड़ा को पर्दे पर इतने शानदार ढंग से प्रस्तुत किया गया कि यह सिनेमा का इतिहास बन गया।
3. अविस्मरणीय संवाद
- “मालिक, मेरी दो बीघा ज़मीन!” – जब शंभू अपनी ज़मीन को बचाने के लिए गुहार लगाता है।
- “शहर में गरीबों की कोई जगह नहीं होती!”
- “ज़मीन तो हमारी थी, मगर अब… अब कुछ भी हमारा नहीं रहा।”
4. कालजयी संगीत
सलिल चौधरी का संगीत इस फिल्म की आत्मा है। कुछ यादगार गीत:
- “धरती कहे पुकार के” – जो किसान के दर्द को दर्शाता है।
- “हरियाला सावन ढोल बजाता आया” – गांव की सरलता और खुशियों को चित्रित करता है।
- “अजा रे, आ निंदिया तू आ” – माँ के प्यार का अनमोल गीत।
5. सिनेमाटोग्राफी और निर्देशन
- बिमल रॉय ने फिल्म में असली लोकेशन्स का उपयोग किया और कोई स्टूडियो सेट नहीं बनाया।
- ब्लैक एंड व्हाइट छायांकन ने फिल्म की भावनात्मक गहराई को बढ़ाया।
- बारिश, शहर की गंदगी और संघर्ष को बेहद वास्तविक रूप में दर्शाया गया।
निष्कर्ष
“दो बीघा ज़मीन” केवल एक फिल्म नहीं, बल्कि भारतीय किसानों की पीड़ा की एक गाथा है। यह फिल्म दिखाती है कि कैसे गरीबों की मेहनत का कोई मूल्य नहीं होता और समाज किस तरह केवल अमीरों के लिए काम करता है।
“दो बीघा ज़मीन” गरीब किसान की टूटी हुई उम्मीदों की कहानी है – जहां मेहनत, ईमानदारी और संघर्ष के बावजूद वह हार जाता है।
यह फिल्म आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी 1953 में थी।
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“दो बीघा ज़मीन” (1953) के बेहतरीन संवाद और जीवन दर्शन
“दो बीघा ज़मीन” बिमल रॉय द्वारा निर्देशित भारतीय सिनेमा की सबसे संवेदनशील और यथार्थवादी फिल्मों में से एक है। यह फिल्म एक गरीब किसान की संघर्षमयी यात्रा को दर्शाती है, जो अपनी जमीन बचाने के लिए शहर में मजदूरी करने पर मजबूर हो जाता है। इसके संवाद गहरे जीवन दर्शन और समाज की कठोर सच्चाइयों को उजागर करते हैं।
1. गरीबी और संघर्ष पर आधारित संवाद
📝 “जिसके पास पैसा होता है, उसी का न्याय भी होता है।”
👉 दर्शन: न्याय अक्सर अमीरों के पक्ष में झुका होता है, गरीबों की आवाज़ सुनी नहीं जाती।
📝 “गरीब आदमी की ज़िंदगी में आराम कहाँ?”
👉 दर्शन: एक गरीब व्यक्ति के लिए हर दिन संघर्ष है, उसे चैन से जीने का मौका नहीं मिलता।
📝 “किसान के लिए उसकी ज़मीन सिर्फ ज़मीन नहीं, बल्कि उसकी माँ के समान होती है।”
👉 दर्शन: एक किसान अपनी जमीन से भावनात्मक रूप से जुड़ा होता है, यह केवल एक संपत्ति नहीं, बल्कि उसकी पहचान होती है।
📝 “रोटी कमाने के लिए अपने बच्चों को भूखा छोड़ना पड़ता है।”
👉 दर्शन: गरीबी इतनी क्रूर होती है कि इंसान को अपनों से भी दूर कर देती है।
2. समाज की सच्चाई और अमीरी-गरीबी पर आधारित संवाद
📝 “गरीब के लिए शहर भी उतना ही बेरहम होता है, जितना उसका गाँव।”
👉 दर्शन: चाहे गाँव हो या शहर, गरीब आदमी को हर जगह संघर्ष करना पड़ता है।
📝 “जिसके पास पैसा नहीं, उसकी सुनवाई भी नहीं होती।”
👉 दर्शन: समाज में पैसे वालों की बात मानी जाती है, जबकि गरीब की तकलीफों को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है।
📝 “किसी को मेहनत करने के बाद भी दो वक्त की रोटी नसीब न हो, इससे बड़ा अन्याय क्या होगा?”
👉 दर्शन: जब एक ईमानदार और मेहनती व्यक्ति भी अपने परिवार का पेट नहीं भर पाता, तो समाज की असमानता साफ नज़र आती है।
3. पारिवारिक संघर्ष और त्याग पर आधारित संवाद
📝 “पिता सिर्फ कमाने वाला नहीं होता, वह अपने बच्चों के सपनों का रक्षक भी होता है।”
👉 दर्शन: एक पिता सिर्फ घर चलाने वाला नहीं, बल्कि अपने बच्चों की खुशियों और भविष्य का भी जिम्मेदार होता है।
📝 “माँ-बाप भूखे रह सकते हैं, लेकिन अपने बच्चे को भूखा नहीं देख सकते।”
👉 दर्शन: माता-पिता के लिए अपने बच्चों का सुख सबसे महत्वपूर्ण होता है, चाहे उन्हें खुद कितनी भी तकलीफ सहनी पड़े।
📝 “जब बच्चे रोते हैं, तो माँ के आँसू अंदर ही अंदर बहते हैं।”
👉 दर्शन: एक माँ अपने बच्चों का दुःख कभी ज़ाहिर नहीं करती, लेकिन उसका दर्द सबसे गहरा होता है।
4. मेहनत और इंसानियत पर आधारित संवाद
📝 “ईमानदारी से कमाई गई हर रोटी सबसे मीठी होती है।”
👉 दर्शन: मेहनत और ईमानदारी से कमाया गया खाना सबसे ज्यादा संतोष देता है।
📝 “गरीब के पास सिर्फ उसकी मेहनत होती है, और अगर वो भी छीन ली जाए, तो उसके पास कुछ नहीं बचता।”
👉 दर्शन: गरीब आदमी की सबसे बड़ी ताकत उसकी मेहनत होती है, अगर वह भी छिन जाए, तो वह पूरी तरह लाचार हो जाता है।
📝 “अगर इंसान के पास दिल हो, तो वह किसी भी हालात में इंसानियत को नहीं छोड़ता।”
👉 दर्शन: परिस्थिति कितनी भी कठिन क्यों न हो, इंसान को अपनी मानवता और अच्छाई को कभी नहीं खोना चाहिए।
5. सपनों और हकीकत पर आधारित संवाद
📝 “कभी-कभी सपने हकीकत से ज्यादा खूबसूरत होते हैं, लेकिन हकीकत ही असली दुनिया होती है।”
👉 दर्शन: सपने हमेशा बड़े और सुंदर लगते हैं, लेकिन असली संघर्ष जीवन में ही होता है।
📝 “जिस दुनिया में मेहनत का कोई मोल न हो, वहां इज्जत की उम्मीद करना भी बेकार है।”
👉 दर्शन: जब मेहनती लोगों की कोई कद्र नहीं होती, तो समाज में उनके लिए सम्मान की भी जगह नहीं होती।
निष्कर्ष
“दो बीघा ज़मीन” सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि उस संघर्ष की गाथा है जिससे लाखों गरीब हर दिन गुजरते हैं। यह फिल्म हमें समाज की असमानता, अमीरी-गरीबी की खाई, और मेहनत की सच्ची कीमत समझने पर मजबूर करती है। इसके संवाद जीवन की गहरी सच्चाइयों को दर्शाते हैं और हमें सोचने पर मजबूर करते हैं कि क्या हम एक समान और न्यायसंगत समाज की ओर बढ़ रहे हैं?
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Quote 1
“Bhagwan ke ghar der hai, andher nahi.”
यह संवाद इस विचार को दर्शाता है कि ईश्वर के न्याय में देर हो सकती है, लेकिन वह कभी अन्याय नहीं करते। जीवन में धैर्य और विश्वास बनाए रखने की प्रेरणा मिलती है।
Quote 2
“Zameen maa hoti hai, isse kabhi mat chhodna.”
यह संवाद माटी और जमीन के प्रति गहरे लगाव को दर्शाता है। यह जीवन में अपनी जड़ों से जुड़े रहने और अपनी संस्कृति और मूल्यों को महत्व देने की सीख देता है।
Quote 3
“Mehnat ka phal meetha hota hai.”
कड़ी मेहनत और उसके फल के महत्व को दर्शाता है। यह जीवन में परिश्रम करने की प्रेरणा देता है ताकि अंततः सफलता प्राप्त हो सके।
Quote 4
“Aasman pe thookne se woh tumpe hi girta hai.”
यह संवाद बताता है कि दूसरों को नुकसान पहुँचाने की कोशिश अंततः खुद के लिए ही हानिकारक होती है। सकारात्मक सोच और कर्म का महत्व दर्शाता है।
Quote 5
“Insaan ki pehchaan uske kaam se hoti hai.”
यह संवाद इस बात पर जोर देता है कि व्यक्ति की वास्तविक पहचान उसके कर्म और कार्यों से होती है, न कि उसकी जाति या स्थिति से।
Quote 6
“Dukh aur sukh toh ek hi sikke ke do pehlu hain.”
यह जीवन के उतार-चढ़ावों को दर्शाता है और यह सिखाता है कि सुख और दुख जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं, जिन्हें समान रूप से स्वीकार करना चाहिए।
Quote 7
“Samay se bada koi vaidya nahi.”
यह संवाद समय के महत्व और उसकी उपचार शक्ति को दर्शाता है, यह सिखाता है कि समय सभी घावों को भर सकता है।
Quote 8
“Jeevan ek sangharsh hai.”
यह जीवन की चुनौतियों को स्वीकार करने और उनसे लड़ने की प्रेरणा देता है, यह बताता है कि संघर्ष जीवन की सच्चाई है।
Quote 9
“Dil se bada koi amir nahi.”
यह संवाद दिल की दौलत को सबसे बड़ी दौलत बताता है, यह दर्शाता है कि सच्चा अमीर वही है जिसके पास एक बड़ा और दयावान ह्रदय है।
Quote 10
“Jisne apna ghar chhoda, usne sab kuch khoya.”
यह संवाद अपने घर और परिवार की अहमियत को दर्शाता है, यह बताता है कि अपने घर-परिवार को छोड़कर व्यक्ति बहुत कुछ खो देता है।
Quote 11
“Vishwas ke bina koi rishta nahi chal sakta.”
Interesting Facts
दो बीघा ज़मीन (1953) – अनसुने और दिलचस्प तथ्य
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भारतीय सिनेमा की पहली नियो-रियलिस्ट फिल्म – बिमल रॉय द्वारा निर्देशित दो बीघा ज़मीन भारतीय सिनेमा की पहली फिल्मों में से एक थी, जिसने इटैलियन नियो-रियलिज़्म से प्रेरणा ली और सामाजिक यथार्थवाद को बड़े पर्दे पर उतारा।
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कहानी का टॉलस्टॉय से संबंध – फिल्म की प्रेरणा रूसी लेखक लियो टॉलस्टॉय की कहानी God Sees the Truth, But Waits और बंगाली लेखक रवींद्रनाथ ठाकुर की कविता Dui Bigha Jomi से ली गई थी।
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पहली भारतीय फिल्म जिसने अंतरराष्ट्रीय पहचान बनाई – दो बीघा ज़मीन पहली भारतीय फिल्म थी जिसे कान्स फिल्म फेस्टिवल (1954) में प्रतिष्ठित Prix International पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
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बलराज साहनी ने रिक्शा चलाने की असली ट्रेनिंग ली – अपने किरदार को रियलिस्टिक बनाने के लिए बलराज साहनी ने कलकत्ता की सड़कों पर असली रिक्शा खींचने की प्रैक्टिस की, ताकि वह एक गरीब किसान और मजदूर की पीड़ा को सही तरीके से पर्दे पर उतार सकें।
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फिल्म की शूटिंग असली लोकेशन्स पर हुई – उस दौर में स्टूडियो सेट पर फिल्में शूट करने का चलन था, लेकिन दो बीघा ज़मीन की शूटिंग कोलकाता की असली सड़कों पर की गई ताकि फिल्म को एक नेचुरल लुक दिया जा सके।
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सालों बाद ऋषिकेश मुखर्जी ने इसे रीक्रिएट किया – मशहूर डायरेक्टर ऋषिकेश मुखर्जी, जो इस फिल्म में एडिटर थे, ने इसी विषय पर बाद में नमक हराम (1973) जैसी फिल्म बनाई, जिसमें मजदूर वर्ग के संघर्ष को दिखाया गया।
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सलिल चौधरी का संगीत और सामाजिक संदेश – फिल्म के गाने ‘धरती कहे पुकार के’ और ‘अजाब तेरी दुनिया’ ने न सिर्फ कहानी को आगे बढ़ाया, बल्कि मजदूर वर्ग की पीड़ा को और गहराई से दर्शाया। संगीतकार सलिल चौधरी ने इसके लिए बंगाल के लोकसंगीत से प्रेरणा ली थी।
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सामाजिक बदलाव का संदेश – फिल्म ने दिखाया कि कैसे पूंजीवाद और औद्योगीकरण ने गरीब किसानों की ज़मीन छीन ली, जिससे वे मजदूर बनने पर मजबूर हो गए। यह विषय आज भी प्रासंगिक है।
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बिमल रॉय का निर्देशन करियर इस फिल्म से चमका – दो बीघा ज़मीन की सफलता के बाद, बिमल रॉय ने देवदास (1955), मधुमती (1958) और बंदिनी (1963) जैसी बेहतरीन फिल्में बनाईं।
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भारतीय समानांतर सिनेमा की शुरुआत – यह फिल्म भारतीय समानांतर सिनेमा (Parallel Cinema) की एक नींव मानी जाती है, जिसने बाद में सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक और मृणाल सेन जैसे निर्देशकों को प्रेरित किया।
दो बीघा ज़मीन भारतीय सिनेमा की सबसे प्रभावशाली और सामाजिक रूप से जागरूक फिल्मों में से एक है, जिसने गरीब किसानों की पीड़ा को पूरी दुनिया के सामने रखा।
वास्तविक जीवन की घटनाओं से प्रेरित
“दो बीघा जमीन” का कथानक बांग्ला लेखक रबींद्रनाथ टैगोर की कविता “दुई बिघा जोमी” से प्रेरित है, जो किसानों की दुर्दशा पर आधारित थी।
भारतीय सिनेमा में यथार्थवाद की शुरुआत
इस फिल्म को भारतीय सिनेमा में यथार्थवाद की शुरुआत के रूप में देखा जाता है, जिसने सामाजिक मुद्दों पर केंद्रित फिल्मों के लिए मार्ग प्रशस्त किया।
राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार
फिल्म ने 1954 में पहला फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ फिल्म पुरस्कार जीता और कान फिल्म फेस्टिवल में अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी जीता।
बलराज साहनी की व्यक्तिगत तैयारी
मुख्य अभिनेता बलराज साहनी ने अपने किरदार में ढलने के लिए कोलकाता की सड़कों पर रिक्शा चलाने का अभ्यास किया था।
सत्यजीत रे की प्रशंसा
प्रसिद्ध फिल्म निर्माता सत्यजीत रे ने बिमल रॉय की इस फिल्म को एक उल्लेखनीय सामाजिक फिल्म के रूप में सराहा।
किसान आंदोलन की पृष्ठभूमि
यह फिल्म उस समय बनी जब भारत में किसान आंदोलन और भूमि सुधारों की चर्चा जोरों पर थी, जिससे इसकी प्रासंगिकता बढ़ गई।
बिमल रॉय की निर्देशन शैली
बिमल रॉय ने इस फिल्म में यथार्थवादी निर्देशन शैली अपनाई, जिसे बाद में कई भारतीय फिल्मों में दोहराया गया।
संगीत का सामाजिक संदेश
सलिल चौधरी द्वारा रचित फिल्म का संगीत न केवल मनोरंजन के लिए था, बल्कि उसमें गहरे सामाजिक संदेश भी निहित थे।
1. धरती कहे पुकार के – मन्ना डे
2. हरियाला सावन ढोल बजाता आया – मोहम्मद रफ़ी, लता मंगेशकर
3. अजा रे आ – मन्ना डे
4. मेहनत की रोटी – लता मंगेशकर
5. अपना है संसार – मोहम्मद रफ़ी, लता मंगेशकर
6. चलो चलें मां – मोहम्मद रफ़ी, लता मंगेशकर