Pyaasa (1957): A Comprehensive Analysis of Guru Dutt’s Cinematic Masterpiece

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प्यासा (1957): विस्तृत सिनॉप्सिस और विश्लेषण

परिचय

गुरुदत्त द्वारा निर्देशित प्यासा (1957) हिंदी सिनेमा के स्वर्णिम युग की शिखर कृति मानी जाती है । इस फिल्म में गुरुदत्त ने स्वयं नायक विजय का अभिनय किया, साथ में माला सिन्हा (मीना), वहीदा रहमान (गुलाबो) और रहमान (मिस्टर घोष) प्रमुख भूमिकाओं में हैं। रिलीज़ के समय यह साल की एक बड़ी व्यावसायिक सफलता थी और आज इसे भारतीय सिनेमा की महानतम क्लासिक फिल्मों में गिना जाता है । अपनी भावुक कहानी, सामाजिक संदेश, यादगार गीत-संगीत और गुरुदत्त के बेजोड़ निर्देशन के कारण प्यासा को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सराहा गया – यह इकलौती हिंदी फिल्म है जो टाइम पत्रिका की 20वीं सदी की 100 श्रेष्ठ फ़िल्मों की सूची में शामिल हुई । आगे हम इस फिल्म की कहानी का सीन-दर-सीन सारांश, पात्रों का विकास, मुख्य थीम, निर्देशन-छायांकन की खासियतें, संगीत की भूमिका और ऐतिहासिक महत्त्व पर चर्चा करेंगे, साथ ही बेहतरीन संवादों और रोचक पर्दे के पीछे की बातों की झलक भी देंगे।

कहानी: संघर्ष, मोहभंग और मुक्ति

शुरुआत: कहानी कलकत्ता शहर में संघर्षरत उर्दू कवि विजय (गुरुदत्त) के इर्द-गिर्द घूमती है, जो आदर्शवादी होने के साथ बेरोज़गार है। फिल्म का आरंभ एक प्रतीकात्मक दृश्य से होता है जिसमें विजय प्रकृति की गोद में कविता लिख रहा है और एक भौंरा फूलों पर मंडरा रहा है – तभी एक राहगीर के पैरों तले वह भौंरा कुचल कर मर जाता है । यह दृश्य विजय की कोमल संवेदनशीलता बनाम दुनिया की निर्ममता को स्थापित करता है। विजय अपने गीतों-कविताओं में समाज की गरीबी, बेकारी और दर्द को आवाज़ देता है, लेकिन प्रकाशक उसकी रचनाओं को ख़ारिज करते हैं क्योंकि वे प्रेम जैसे “बिकाऊ” विषयों की बजाय सामाजिक सच्चाई पर लिखी गई हैं । घर पर भी उसे तानों का सामना करना पड़ता है – उसके दो बड़े भाई उसकी कविता को कूड़े के भाव बेच देते हैं और उसे निकम्मा समझते हैं । यह सब सह न पाने पर विजय घर छोड़ देता है, भरी दुनिया में प्यासा और अकेला।

गुलाबो से मुलाकात: निराश विजय की जिंदगी में रोशनी की किरण बनकर गुलाबो (वहीदा रहमान) आती है, जो दिल की नेक लेकिन कोठे की गायिका/वैश्या है। एक रोज़ सड़क पर गुलाबो कबाड़ी से खरीदे पुराने कागज़ों पर लिखी कविता गुनगुना रही होती है – यह दरअसल विजय की ही रचना “हो लाख मुसीबत राह में” होती है । संयोग से विजय वहां मौजूद होता है। गुलाबो संभावित ग्राहक समझकर उससे इश्क़िया अंदाज़ में पेश आती है लेकिन जब पता चलता है कि वह तो एक गरीब कवि है, तो उसे निराश छोड़ देती है। बाद में, जब गुलाबो को अहसास होता है कि यही “बेकार आदमी” उस कविता का असली लेखक विजय है जिसकी भावनाओं ने उसे मोहित किया था, तो वह शर्मिंदा होती है और दिल से विजय को चाहने लगती है । गुलाबो विजय की प्रतिभा को पहचानती है और उसकी सबसे बड़ी प्रशंसक बन जाती है। उधर विजय भी गुलाबो के भोले प्रेम और सम्मान से भावुक होता है। एक दृश्य में जब विजय की पूर्व प्रेमिका मीना, गुलाबो से तंज में पूछती है कि “विजय जैसे सज्जन आदमी की जान-पहचान तुम जैसी औरत से कैसे हुई?”, तो गुलाबो संजीदगी से जवाब देती है – “सौभाग्य से” – यह संवाद गुलाबो के चरित्र की गरिमा को दर्शाता है। गुलाबो विजय के जीवन में प्यार, समझ और प्रोत्साहन लेकर आती है, जो उसे आगे बढ़ने की ताकत देता है।

पुराना प्यार और नया धोखा: विजय को पता चलता है कि उसकी कॉलेज के ज़माने की प्रेमिका मीना (माला सिन्हा) ने उसे छोड़कर अपने सुख-सुविधा के लिए एक बड़े प्रकाशक श्री घोष (रहमान) से शादी कर ली है । मीना का ये फैसला व्यावहारिक था – गरीबी से बचने के लिए उसने प्रेम का त्याग कर दिया। वर्षों बाद एक कवि सम्मेलन में विजय और मीना की फिर मुलाकात होती है; दोनों पुराने दिन याद करके भावुक हो जाते हैं, मगर हालात बदल चुके हैं। मीना अब एक अमीर व्यक्ति की पत्नी है और विजय मुफलिस कवि। मीना के पति मिस्टर घोष को विजय और मीना के अतीत का पता चल जाता है तो वह शक और जलन में विजय को अपने यहां नौकरी पर रख लेता है – दिखावे को एक “नौकर” के रूप में, पर असल में मीना पर नज़र रखने के इरादे से । मजबूरन विजय यह तुच्छ नौकरी स्वीकार करता है, ताकि दो वक्त की रोटी कमा सके। एक दृश्य में विजय श्री घोष की लाइब्रेरी में घरेलू सहायक बनकर काम करता दिखाया गया है – पुराने प्रेमी को इस हैसियत में देखना मीना को अंदर से तोड़ता है। विजय और मीना के बीच दबी भावनाएँ पुनर्जीवित होने लगती हैं, जिससे उनके संबंधों में तनाव आता है। मिस्टर घोष की कठोरता और अपमानजनक व्यवहार के कारण अंततः विजय को नौकरी से निकाल दिया जाता है । इस विरह और बेइज़्ज़ती से आहत विजय स्वयं को निरर्थक महसूस करने लगता है। एक बिंदु पर वह आत्महत्या तक विचार करता है – जीवन से निराश विजय शराब के नशे में लड़खड़ाते कदमों से शहर की अंधेरी गलियों में भटकता है और दर्द भरे स्वर में पूछता है, “जिन्हें नाज़ है हिंद पर, वो कहाँ हैं?” – यह मार्मिक गीत व कव्वाली उन बेसहारा स्त्रियों को समर्पित है जो समाज के दोहरे मापदंडों का शिकार हैं, और विजय के समाज से असंतोष को आवाज़ देता है ।

मृत्यु की अफवाह और कविताओं का सम्मान: कहानी में नाटकीय मोड़ तब आता है जब ठोकर खाए हुए विजय एक रेलवे यार्ड में एक भूखे भिखारी को अपनी पुरानी जैकेट उतारकर दे देता है। निराश विजय वहीं सुस्ताने लेट जाता है, मानो जीवन से हार मान ली हो। तभी अचानक एक रेल दुर्घटना घटती है जिसमें वह भिखारी ट्रेन से कटकर मारा जाता है – बदन पर विजय की जैकेट होने के कारण लोग ग़लती से मृत देह को विजय समझ बैठते हैं । घायल विजय को वहां से बेहोशी की हालत में अस्पताल ले जाया जाता है, पर दुनिया को उसकी “मौत” की खबर मिल जाती है। इस कथित मृत्यु के बाद घटनाएँ तेजी से बदलती हैं – गुलाबो, जो विजय से सच्चा प्रेम करती है, उसकी अप्रकाशित कविताओं को दुनिया के सामने लाने की ठानती है। वह मीना के पति और बड़े प्रकाशक मिस्टर घोष से गुज़ारिश करती है कि विजय की कविताएँ छाप दें। शुरुआती झिझक के बाद घोष को मर चुके कवि की रचनाओं से मोटा मुनाफ़ा कमाने का मौका नज़र आता है और वह राज़ी हो जाता है । जल्द ही विजय का कविता-संग्रह “परछाइयाँ” (Parchhaiyan) छपकर बाजार में आता है और देखते ही देखते हाथोंहाथ बिक जाता है । जो समाज कल तक विजय को तिरस्कृत कर रहा था, वही अब उसकी “मरणोपरांत” प्रतिभा को पूजने लगता है। किताब की शानदार कामयाबी के साथ तथाकथित शहीद कवि “विजय” की शोहरत चारों ओर फैल जाती है। मगर वास्तव में विजय ज़िंदा है और अस्पताल में अपना इलाज करा रहा है, अनजान कि बाहर उसकी मौत की अफवाह पर क्या खेल खेला जा रहा है।

पुनरुत्थान और चरमोत्कर्ष: स्वस्थ होने के बाद विजय जब वापस लौटता है तो पाता है कि उसकी पहचान और रचना दोनों पर दूसरे अपना दावा जमा रहे हैं। मिस्टर घोष और यहां तक कि विजय का करीबी दोस्त श्याम भी उसे पहचानने से इनकार करते हैं, क्योंकि “मरा हुआ” Vijay उनके लिए ज़्यादा फ़ायदे का सौदा है । विजय दावा करता है कि वह ही असली विजय है, पर उसे पागल करार देकर पागलखाने भिजवा दिया जाता है । इधर विजय के लालची भाई भी घोष से रिश्वत खाकर अपने सगे भाई को पहचानने से मुकर जाते हैं – उन्हें भी कविताओं की कमाई चाहिए, भाई की ज़िंदगी नहीं । इस तरह जीते-जी विजय को “मृतक” बना दिया जाता है और उसकी याद में शहर में भव्य स्मृति-सभा रखी जाती है। उधर पागलखाने में विजय टूट चुका है, लेकिन उसका वफादार दोस्त अब्दुल सत्तार (जॉनी वॉकर) उसकी मदद को आता है। सत्तार हास्यप्रिय मसखरा ज़रूर है, मगर इस मुश्किल घड़ी में वह संजीदगी से दोस्ती निभाता है – वह चोरी-छिपे विजय को पागलखाने से भगाने में कामयाब हो जाता है । उसी दौरान पूरे नगर में मशहूर “शायर विजय” की बरसी पर आयोजित कार्यक्रम में उसकी कविताओं का गुणगान हो रहा है। ठीक इसी सभा के बीच, अचानक दरवाजे पर स्वयं विजय आकर प्रकट होता है – जीवित और पूर्ण होश में, मानो मृत्यु को मात देकर लौट आया हो। उसे देखते ही हॉल में सनसनी फैल जाती है। शुरुआती अविश्वास के बाद लोग स्तब्ध रह जाते हैं। विजय धीरे-धीरे मंच की ओर बढ़ता है और अपने “पूजा” कर रहे प्रशंसकों की भीड़ को सम्बोधित करता है। उनकी नज़र में यह किसी चमत्कार से कम नहीं – एक “ईसा मसीह” की तरह विजय अपनी ही स्मृति-सभा में पुनर्जीवित होकर उपस्थित हो जाता है । दर्द और गुस्से से भरा विजय वहाँ एक जोरदार कविता/गीत सुनाता है: “ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनिया; ये इंसान के दुश्मन समाजों की दुनिया; ये दौलत के भूखे रिवाज़ों की दुनिया – ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!” भीड़ के बीच खड़ा विजय जब यह तीखा सच सुनाता है तो चारों ओर सन्नाटा छा जाता है। मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ में गाया यह गीत धीरे-धीरे नरमी से तेज़ चीख में तब्दील हो जाता है – हर पंक्ति के साथ कैमरा उन चेहरों पर जाता है जिन्होंने कभी विजय को ठुकराया था । आखिरी पंक्ति में विजय की आवाज़ फट पड़ती है – “तो क्या है!” – और श्रोताओं का जमघट उन्मादी हुजूम में बदलने लगता है। कविता समाप्त होते ही विजय मंच से समाज की खुदगर्जी और छल को ललकारते हुए एक अविस्मरणीय मोनोलॉग बोलता है। वह दो-टूक कहता है कि उसे किसी فرد विशेष से शिकायत नहीं, बल्कि इंसानियत को कुचलने वाले इस समाज के ढाँचे से शिकायत है – जहाँ जीते-जी इंसान की कदर नहीं और मरने पर मूरतें पूजी जाती हैं । वह ऐसी दुनिया को ठुकराता है और अपने नाम-यश को त्यागते हुए उद्घोष करता है कि “मैं विजय नहीं हूँ!” भीड़ में सन्नाटा पसर जाता है – सबके बीच खड़ा विजय अपनी पहचान को ही नकार देता है क्योंकि अब उसे इस नक़ली सम्मान की कोई परवाह नहीं रही। विजय के इस विद्रोही रूप से सभागार में हड़कंप मच जाता है; लोग उसे सचमुच पागल समझने लगते हैं, तो कुछ उसके पक्ष में आ जाते हैं। इस अफ़रा-तफ़री में विजय सभा छोड़कर बाहर चल देता है। मीना आगे बढ़कर उसे रोकने की कोशिश करती है, पर विजय शांत स्वर में उससे विदा लेता है। मीना समझ जाती है कि अब बहुत देर हो चुकी है – विजय के मन में उसके लिए जो मोह था, वह समाज की निर्दयता के आघातों में मर चुका है। बाहर गुलाबो व्याकुल खड़ी होती है, विजय की राह देखते हुए। अंतिम दृश्य में विजय सूनी आँखों से गुलाबो से कहता है, “मैं दूर जा रहा हूँ, गुलाब।” गुलाबो पूछती है, “कहाँ?” विजय थके हुए किंतु दृढ़ स्वर में जवाब देता है, “जहाँ से मुझे फिर दूर ना जाना पड़े।” दोनों एक साथ आगे बढ़ जाते हैं। फिल्म के इस भावुक अंत में विजय और गुलाबो समाज की भीड़-भाड़ से दूर एक नई ज़िंदगी शुरू करने निकल पड़ते हैं – हॉल के दरवाज़े से बाहर निकलते ही तेज़ हवा विजय की प्रकाशित कविताओं के पन्नों को बिखेर देती है, मानो उसकी पिछली ज़िंदगी और नाम को सदा के लिए हवा में उड़ाकर नया अध्याय लिखा जा रहा हो । इस तरह विजय को अंततः प्रेम और शांति का आश्रय मिलता है, पर अपने समय के समाज से नहीं बल्कि उससे विमुख होकर – प्यासा एक कड़वी मगर आशावादी अंतिम छाप छोड़ती है।

मुख्य पात्र और उनका विकास

विजय: फिल्म के नायक विजय एक आदर्शवादी कवि हैं जो प्रारंभ में संवेदनशील, दयालु और महत्वाकांक्षी हैं, लेकिन समाज की बेरुखी उन्हें अंदर से तोड़ देती है। शुरुआती दृश्यों में जहाँ वे छोटी-छोटी बातों में जीवन का सौंदर्य देखते हैं (जैसे फूल और भौंरा), वहीं अंत तक आते-आते दुनिया के ढोंग से इतने क्षुब्ध हो जाते हैं कि सबकुछ ठुकरा देने पर आमादा हो जाते हैं। अपने परिवार, प्रेमिका और मित्रों से ठुकराए जाने के बाद विजय में गहरा मोहभंग आता है। क्लाइमेक्स में मंच पर खड़ा विजय वही इंसान नहीं रह जाता जो शुरुआत में था – संघर्षों ने उसे आदर्शवादी कवि से क्रोधित निराशावादी बना दिया है । फिर भी, विजय का चरित्र एक त्रासद नायक का है जो अंतत: समाज का साथ छोड़कर प्रेम (गुलाबो) का दामन थाम लेता है। गुरुदत्त ने चेहरे के हाव-भाव और ख़ासतौर पर आँखों से विजय के सूक्ष्म जज़्बातों को बखूबी व्यक्त किया है – निराशा, अपमान, क्रोध और करुणा जैसे भाव उनकी आंखों से झलकते हैं, जो दर्शकों को विजय के दर्द से जोड़ देते हैं।

गुलाबो: गुलाबो एक तवायफ होते हुए भी दिल की बहुत नेक, दयालु और खुद्दार किरदार है। उसे समाज ने धक्का देकर वेश्यालय में ला खड़ा किया है, फिर भी उसके भीतर मानवीय संवेदना ज़िंदा है। वह विजय की कविताओं में छिपी आत्मा को समझती है और बिना किसी स्वार्थ के उससे प्रेम करने लगती है। गुलाबो का प्रेम निस्वार्थ और त्यागभरा है – वह विजय की खुशियों के लिए दौलतमंद घोष से भी भिड़ जाती है और उसकी कविताओं को छपवाने के लिए जी-जान लगा देती है। गुलाबो के चरित्र विकास में हम देखते हैं कि किस तरह एक तथाकथित “गिरा हुआ” औरत अपने प्यार और सम्मान के लिए समाज से लड़ने का हौंसला जुटाती है। वह शुरू में ग्राहक को रिझाने वाली अभिनेत्री होती है, लेकिन विजय से मिलने के बाद उसकी संवेदनशीलता उभर आती है। अंत में विजय के साथ जाने के निर्णय में गुलाबो की जीत होती है – वह सम्मान और प्यार भरी ज़िंदगी पाने की हक़दार ठहरती है। 1950 के दशक की फ़िल्म के हिसाब से गुलाबो का चरित्र बहुत प्रगतिशील है, जिसे गहरी सहानुभूति के साथ उकेरा गया है । वहीं वहीदा रहमान ने अपनी पहली बड़ी भूमिका में बेहद संजीदा अभिनय किया – आंखों व चेहरे के भावों से गुलाबो के प्रेम, वेदना और व्यथा को व्यक्त किया है।

मीना: मीना विजय की पूर्व प्रेमिका हैं, जो उससे प्रेम तो करती थीं लेकिन जीवन की व्यावहारिक आवश्यकताओं ने उन्हें समझौता करने पर मजबूर किया। मीना ने आर्थिक सुरक्षा के लिए बड़े प्रकाशक घोष से विवाह किया, लेकिन दिल के किसी कोने में विजय के प्रति लगाव बाकी है। फिल्म में मीना का चरित्र द्वंद्व से भरा है – एक ओर आरामदेह जीवन की लालसा और समाज में इज्जत की चाह, दूसरी ओर सच्चे प्यार के लिए मन में चुभता पछतावा। जब सालों बाद विजय दोबारा उसकी ज़िंदगी में आता है, मीना की दबी भावनाएँ बाहर आती हैं। वह चाहकर भी अपने पति का साथ नहीं छोड़ सकती, मगर विजय के दर्द को महसूस करती है। क्लाइमेक्स में जब विजय सबको छोड़कर जा रहा होता है, मीना के पास पश्चाताप के आँसू और खाली हाथ के सिवा कुछ नहीं बचता। मीना एक त्रासद चरित्र है जो समाज की दबाव और व्यक्तिगत इच्छाओं के बीच पिस जाती है। हालांकि कहानी मीना को नकारात्मक रूप में प्रस्तुत नहीं करती – वह उस दौर की एक औसत मध्यमवर्गीय स्त्री का प्रतीक है जो प्रेम और व्यवहारिकता के द्वंद्व में फंसकर अपनी खुशी कुर्बान कर देती है। मीना के माध्यम से फिल्म यह नहीं कहती कि उसने गलत फैसला लिया, बल्कि दिखाती है कि इस निष्ठुर समाज में कई बार अच्छे इंसान भी हालात के हाथों विवश हो जाते हैं।

अन्य पात्र: मिस्टर घोष कहानी में विरोधी के रूप में उभरते हैं – एक अमीर, ईर्ष्यालु और व्यापारिक दिमाग वाला प्रकाशक जो कला को केवल पैसे के तराजू में तोलता है। घोष के ज़रिए “कला बनाम व्यापार” का टकराव चरम पर दिखाई देता है; वे विजय की कविताओं को तभी महत्व देते हैं जब उनसे लाभ कमाने की संभावना बनती है। विजय का दोस्त अब्दुल सत्तार (जॉनी वॉकर) हास्य रस लाता है – वह नाई/मसाज करने वाले के तौर पर छोटे-छोटे मज़ेदार दृश्य देता है (जैसे गीत “सर जो तेरा चकराए” में) पर साथ ही संकट में विजय की मदद भी करता है, जिससे उसकी दोस्ती की मूल्यवान झलक मिलती है। विजय की मां (लीला मिश्रा) संक्षिप्त भूमिका में बेटे की पीड़ा को समझने वाली एकमात्र पारिवारिक सदस्य हैं। कुल मिलाकर, प्यासा के चरित्र गहरे और बहु-आयामी हैं – प्रत्येक किसी न किसी विचारधारा या सामाजिक सच्चाई का प्रतिनिधित्व करता है। स्त्री पात्रों को जिस संवेदनशीलता से गढ़ा गया है, वह 1950 के दशक के सिनेमा के लिहाज़ से बेहद ख़ास है, क्योंकि यहाँ न केवल नायक बल्कि दोनों प्रमुख नायिकाओं के भावनात्मक और नैतिक संघर्षों को बराबर तवज्जो दी गई है ।

प्रमुख थीम और संदेश

प्यासा कई स्तरों पर अर्थपूर्ण है – यह प्रेम की तलाश की कहानी भी है, समाज की निष्ठुरता पर तीखा व्यंग्य भी, और कला व आदर्श बनाम धन व व्यापार का विमर्श भी। फिल्म मानवीय संवेदनाओं और सामाजिक विसंगतियों पर साथ-साथ रोशनी डालती है। इसके कुछ मुख्य थीम इस प्रकार हैं:

  • प्रेम और त्याग: प्रेम प्यासा की केन्द्रीय भावनाओं में से एक है। विजय और मीना का प्रेम अधूरा रह जाता है – मीना प्रेम करते हुए भी व्यावहारिक जीवन चुनती है, जिससे विजय का दिल टूटता है। दूसरी तरफ गुलाबो का प्रेम है जो निश्छल और निस्वार्थ है; वह बदले में कुछ चाहे बिना विजय की खुशी के लिए सब कुछ करने को तैयार रहती है। फिल्म दर्शाती है कि सच्चा प्यार किसी सामाजिक हैसियत या स्वार्थ पर नहीं बल्कि आत्मिक जुड़ाव पर टिका होता है। गुलाबो का पात्र प्रेम में त्याग और समर्पण का प्रतीक है, जबकि मीना का पात्र दिखाता है कि प्यार को दबाने का निर्णय इंसान को अन्दर से ख़ाली कर सकता है। अंत में विजय का गुलाबो के साथ चले जाना इस संदेश को रेखांकित करता है कि प्रेम और इंसानियत, समाज के दिखावे और दौलत से बढ़कर हैं। यह कहानी प्रेम के अलग-अलग स्वरूपों – आत्मिक प्रेम, भौतिक सुखों के लिए त्यागा गया प्रेम, और करुणा से उपजा मानवीय प्रेम – को उजागर करती है।
  • समाज की निष्ठुरता और पाखंड: फिल्म का एक प्रखर थीम है समाज का बेरहम और पाखंडी चेहरा, जो संवेदनशील कलाकार की कदर उसके जीवन में नहीं करता लेकिन मरने के बाद उसे सर आंखों पर बिठाता है। विजय को जीते-जी कोई प्रकाशित नहीं करना चाहता, उसे भिखारी जैसा जीवन जीने को मजबूर किया जाता है, उसकी प्रतिभा का मज़ाक उड़ाया जाता है। लेकिन जैसे ही खबर फैलती है कि वही कवि मर गया, समाज अचानक उसे महान बताने लगता है – यह दोहरा रवैया फिल्म पर तीखा व्यंग्य बनकर उभरता है । विजय का अंतिम मोनोलॉग इसी थीम का निचोड़ है जिसमें वह समाज के ढांचे पर हमला करते हुए कहता है कि उसे इंसानों से शिकायत नहीं, बल्कि उस व्यवस्था से है जो भाई को पराया बना देती है, जो ज़िंदा आदमी को पैरों तले रौंदकर मुर्दों की पूजा करती है । फिल्म कई दृश्यों से समाज की क्रूर सच्चाई दिखाती है – उदाहरण के लिए, एक दृश्य में एक गरीब नाचने वाली औरत को बीमार बच्चे को छोड़कर शराबी ग्राहकों का मनोरंजन करना पड़ता है, और उस माहौल को देखकर विजय बेबसी से वहां से भाग खड़ा होता है । यह sequence दिल दहला देता है और बताता है कि यह समाज कमजोरों को कैसे दोहरा शोषण झेलने पर मजबूर करता है। इसी तरह, विजय के अपने सगे भाई पैसों के लिए उसका नाम बेचकर उसे पागल करार दे देते हैं – पारिवारिक संवेदना भी लालच के आगे हार जाती है। पूरे फिल्म भर में बार-बार यह संदेश मिलता है कि उस दौर का समाज कलाकारों, स्त्रियों और ग़रीबों के प्रति कठोर और संवेदनहीन था। प्यासा उस समाज को आईना दिखाती है जहां प्रेम और करुणा जैसी भावनाओं को कमजोरियों की तरह देखा जाता था। गुरुदत्त ने उस व्यवस्था का विरोध करते हुए एक ऐसा नायक रचा जो अंत में समाज को धत्ता बताकर निकल जाता है, यह जताते हुए कि इतने पाखंडी माहौल में उसे कभी शांति नहीं मिलेगी । यह थीम आज भी प्रासंगिक महसूस होती है, क्योंकि दुनिया में प्रतिभा और अच्छाई की कदर कई बार देर से या मरने के बाद ही होती है।
  • कला बनाम व्यापार (आदर्श बनाम भौतिकवाद): विजय एक कलाकार है – उसे अपनी कविता से आत्मिक संतुष्टि चाहिए, कला के माध्यम से समाज को जगाना उसका मकसद है। इसके विपरीत मिस्टर घोष जैसे किरदार हैं जिनके लिए साहित्य, कविता, सब बस पैसा कमाने के ज़रिये हैं। फिल्म में बार-बार दिखाया गया है कि कैसे पूँजीवादी मानसिकता सच्ची कला को दबा देती है। प्रकाशक विजय को यह कहकर नकारते हैं कि सामाजिक मुद्दों पर कविता लिखने से किताबें नहीं बिकतीं; वे उसे प्रेम-कहानी लिखने को कहते हैं । यह कलाकार के आदर्श और बाज़ार की माँग के बीच संघर्ष को दर्शाता है। मीना का किरदार भी इस थीम को छूता है – उसने प्रेम (आदर्श) को छोड़कर संपन्नता (भौतिक सुख) को चुना, लेकिन सुखी नहीं है। गुलाबो और विजय का संबंध दर्शाता है कि कला और प्रेम का मूल्य पैसा नहीं आंके जा सकते। सबसे बढ़कर, खुद फिल्म प्यासा का अस्तित्व इस थीम पर आधारित है – यह गुरुदत्त की अपनी कलाकार-आत्मा की पुकार थी एक ऐसे जमाने में जब व्यवसायिक सिनेमा का दबदबा बढ़ रहा था । क्लाइमेक्स में जब विजय अपना नाम छोड़कर चला जाता है, तब वह عملي रूप से इस “दौलत-शोहरत की दुनिया” को नकार देता है। वह कहता है: “ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!” – मतलब अगर दौलत और शोहरत से भरी ये दुनिया मिल भी जाए तो भी बेकार है, क्योंकि इसमें सच्ची इंसानियत नहीं । इस तरह फिल्म पूँजीवादी मूल्य बनाम मानवीय मूल्य के टकराव को अपने हर पहलू में उजागर करती है। गुरुदत्त ने इस कहानी के जरिए उस दौर के दर्शकों को यह सोचने पर मजबूर किया कि कला का मकसद सिर्फ मनोरंजन या मुनाफ़ा कमाना नहीं, बल्कि समाज को आईना दिखाना भी है। प्यासा में नायक की हार में भी एक नैतिक जीत है – वह भले दुनिया की नज़र में असफल रहता है, पर अपने आदर्शों को बेचता नहीं है। यही सत्य और आदर्शवाद का संदेश फिल्म छोड़ जाती है।
  • अन्य अंतर्निहित विषय: फिल्म में नारी की स्थिति, धार्मिक-आध्यात्मिक प्रतीकवाद और भारत के स्वतंत्रता बाद के सामाजिक यथार्थ जैसे पहलू भी झलकते हैं। गुलाबो के चरित्र द्वारा प्यासा वेश्यावृत्ति को मानवीय नज़रों से देखती है – वो औरतें भी दिल रखती हैं और इज्ज़त की हकदार हैं। फिल्म में ईसा मसीह का रूपक भी उभरता है – विजय को क्राइस्ट की तरह सूली चढ़ाया जाता है (समाज द्वारा तिरस्कृत कर पागलखाने भेजना, फिर “पुनरुत्थान” होना) और वह भी मसीह की तरह क्षमा और त्याग का मार्ग चुनता है । इसके अलावा, पूरी कहानी स्वतंत्र भारत के उस दौर पर टिप्पणी करती है जब आदर्शवाद और समाजवाद की बातें तो हो रही थीं, लेकिन ज़मीनी सच्चाई में गरीब और कलाकार हाशिये पर थे। फिल्म का काव्यात्मक संवाद और गीत इस सामाजिक यथार्थ को तीखेपन से बयाँ करते हैं। कुल मिलाकर, प्यासा अपने समय से आगे की सोच रखने वाली फिल्म है जो प्रेम, समाज, धर्म, अर्थ आदि को एक साथ पिरोकर मानवीय मूल्यों की पैरवी करती है। इसकी यही बहुस्तरीय थीमैटिक गहराई इसे एक कालजयी कृति बनाती है।

निर्देशन और छायांकन की खासियत

गुरुदत्त अपने दौर के अग्रणी निर्देशक थे और प्यासा में उनकी सिनेमाई प्रतिभा अपने चरम पर दिखाई देती है। फिल्म की हर फ्रेम में एक सोची-समझी कोरियोग्राफी नज़र आती है – गुरुदत्त अपने दृश्य संयोजन (visual composition) के लिए मशहूर थे, जिसे हिंदी सिनेमा की शब्दावली में “पिक्चराइज़ेशन” कहा जाता है । प्यासा में गुरुदत्त और उनके छायाकार वी.के. मूर्ति ने प्रकाश और छाया (light and shadow) के तीखे कॉन्ट्रास्ट के जरिए कई यादगार इमेज कंपोज़ किए हैं । ब्लैक ऐंड व्हाइट होते हुए भी यह फिल्म दृश्यात्मक रूप से अत्यंत समृद्ध है – हर सीन में रोशनी का कोण, कैमरे का मूवमेंट और फ्रेमिंग कहानी के थीम के अनुरूप ढाली गई है । गुरुदत्त ने गीतों की फ़िल्मांकन (song picturization), संपादन की लय और कैमरा मूवमेंट को इतनी सुंदर संगति में पिरोया कि हर सीन में भावनाओं का असर दूना हो जाता है । उदाहरण के लिए, जब विजय एक पार्टी में बावर्ची/नौकर के भेष में अपना दर्द भरा गीत “जाने वो कैसे लोग थे…” गाता है, तब कैमरा मीना और विजय के बीच आगे-पीछे ट्रैक करता हुआ उनकी भावनात्मक दूरी को दर्शाता है । इसी प्रकार कोठे के अँधेरे गली-कूचों में फिल्माए गये गीत “जिन्हें नाज़ है हिंद पर…” में घूमता, लड़खड़ाता कैमरा तथा मंद रोशनी का प्रयोग विजय के नशे और समाज के अंधकार – दोनों को मूर्त रूप दे देता है । फिल्म के अंतिम क्लाइमेक्स दृश्य में तो गुरुदत्त ने सिनेमैटोग्राफी और निर्देशन का शिखर छू लिया है।

आखिरी दृश्य में विजय अपनी स्मृति-सभा में दरवाजे पर आकृति बनाकर प्रकट होता है। गुरुदत्त ने उसे एक रोशन प्रभामंडल में ईसा मसीह-जैसा फ्रेम किया है, चारों तरफ शोकाकुल प्रशंसकों की भीड़ है। कैमरा क्रेन पर सवार होकर सभागार के ऊपर से घूमता है, मानो एक विषादमय नज़ारे को दर्शक की दृष्टि से देख रहा हो । इस प्रभावशाली रचना में प्रकाश का स्रोत दरवाजे के पीछे है जिससे विजय की छवि सिल्हूट (छाया आकृति) बनकर उभरती है – यह विजुअल शॉट फिल्म के संदेश को प्रतिध्वनित करता है कि समाज ने अपने मसीहा को मार दिया और अब वह भूत-प्रेत सा लौट आया है। पूरी भीड़, दो मंज़िला बालकनी समेत, स्तब्ध खड़ी है और गुरुदत्त ने इसे क्लासिकल सिमेट्री (symmetry) के साथ फ्रेम किया है।

उपरोक्त दृश्य सहित पूरे फिल्म में गुरुदत्त ने प्रतीकों और रूपकों का खूब इस्तेमाल किया है। एक और उल्लेखनीय सिक्वेंस है सपना-दृश्य वाला गीत “हम आपकी आँखों में इस दिल को बसा दें तो” – इसमें गुरुदत्त ने कल्पना और तकनीक का बेमिसाल संगम किया है। यह गाना फिल्म के मध्य में तब आता है जब विजय एक स्टेज प्रोग्राम में उदास मन से जिंदगी का तराना छेड़ता है और अचानक दर्शक दीर्घा में उसे मीना की झलक दिखती है । यहीं से गाना एक काल्पनिक स्वप्न दुनिया में प्रवेश करता है: विशाल घुमावदार सीढ़ियाँ बादलों से घिरी रात के आसमान तक जाती दिखती हैं, जिनपर मीना चाँद की बड़ी गोल डिस्क के सामने खड़ी है – सिल्हूट में जैसे कोई अप्सरा हो । मीना धीरे-धीरे उन सीढ़ियों से नीचे स्वर्ग लोक से धरती पर उतरती है, इधर विजय भव्य मेहराबदार द्वार से उस जादुई माहौल में प्रवेश करता है। चारों तरफ़ हल्का कोहरा (smoke) फैला है, बड़े-बड़े गुब्बारे और झूमर लटक रहे हैं, और दोनों मधुर धुन पर मानो बादलों पर थिरकते हैं । गुरुदत्त ने इस पूरे सीन को क्रेन शॉट्स और डॉली मूवमेंट की मदद से ऐसे फिल्माया मानो कैमरा भी नृत्य कर रहा हो – परियों जैसी इस दुनिया में दर्शक पूरी तरह डूब जाता है । गीत के अंत में मीना फिर उन्हीं सीढ़ियों के शीर्ष पर पहुँच जाती है, और विजय नीचे हाथ बढ़ाए रह जाता है – यह रूपक संकेत देता है कि वास्तविक जीवन में मीना अब उसकी पहुंच से कितना दूर जा चुकी है । इस पूरे सपनों जैसे सीक्वेंस में गुरुदत्त की कल्पनाशीलता अपने चरम पर है और यह गीत हिंदी सिनेमा के सबसे खूबसूरत ड्रीम सीक्वेंस में गिना जाता है।

गुरुदत्त के निर्देशन की ख़ास बात उनके दृश्य संयोजन के अलावा अदाकारी और भावनाओं पर बारीक पकड़ भी है। उन्होंने स्वयं एक अभिनेता होते हुए बाकी कलाकारों से भी उम्दा अभिनय करवाया। विशेषकर क्लोज़-अप शॉट्स में चरित्रों की आँखों और हाव-भाव के जरिये कहानी कही गई है। गुरुदत्त मानते थे कि आँखें भावनाओं का दर्पण हैं – प्यासा में उन्होंने कई मौकों पर बिना शब्दों के सिर्फ नज़रों के एक्सप्रेशन से बात पहुंचाई है । उदाहरण के लिए, गीत “जाने क्या तूने कही” (जो गुलाबो कोठे पर गाती है) में नायिका की आंखों की अदाओं से ही इशारे हो जाते हैं कि वह नायक को अपनी ओर बुला रही है । इसी तरह “आज सजन मोहे अंग लगा लो” भजन जैसे गीत में वहीदा रहमान बिना कोई संवाद बोले केवल आँखों से प्रेम, व्याकुलता और बेबसी प्रकट कर देती हैं । गुरुदत्त ने कैमरे के زاवियों (angles) का भी बड़े असरदार ढंग से प्रयोग किया – कुछ दृश्य रोमियो-जूलियट शैली में बालकनी पर मीना और नीचे आंगन में विजय को फ्रेम करते हैं , तो कुछ दृश्य नागरिकLife पत्रिका के एक क्रूसीफाइड (सूली पर चढ़े ईसा) कवर को दिखाकर क्राइस्ट का संकेत देते हैं। उन्होंने अन्य महान फिल्मों से प्रेरणा लेते हुए भी अपने ढंग से पेश किया – जैसे राज कपूर की आवारा (1951) के प्रसिद्ध ड्रीम सीक्वेंस को अपने अंदाज में श्रद्धांजलि देना , या सिटिज़न केन (1941) के Breakfast Montage सीन की झलक मीना और घोष के नाश्ते के दृश्य में देना । कुल मिलाकर, प्यासा का छायांकन और निर्देशन तकनीकी दृष्टि से बेजोड़ है – कहानी के थीम को उभारने के लिए हर सिनेमाई उपकरण (कैमरावर्क, सेट डिज़ाइन, एडिटिंग, साउंड, एक्टिंग) को एकीकृत करके प्रयुक्त किया गया है । इसकी सिनेमैटोग्राफी को आज भी भारतीय सिनेमा की सर्वश्रेष्ठ छवियों में गिना जाता है । 1990 के दशक में प्रसिद्ध फिल्म विद्वान नसरीन मुन्नी कबीर ने अपनी किताब में प्यासा पर एक पूरा अध्याय लिखा और गुरुदत्त के सहयोगियों के किस्से साझा किए हैं , जो दिखाता है कि तकनीकी और रचनात्मक दृष्टि से यह फिल्म कितनी अहम मानी जाती है।

संगीत और कविता

प्यासा का संगीत और गीत इसकी आत्मा हैं। सचिन देव बर्मन द्वारा संगीतबद्ध और साहिर लुधियानवी द्वारा लिखे गए गीत आज हिंदी सिनेमा की विरासत का हिस्सा हैं। फिल्म में कुल सात मुख्य गीत हैं, और ख़ास बात यह है कि हर गाना कहानी को आगे बढ़ाता है या किसी पात्र की मनोदशा को उजागर करता है – यानी ये “सिचुएशनल” गीत हैं, सिर्फ़ फार्मूला भरने के लिए नहीं डाले गए। 2004 में Sight & Sound पत्रिका ने प्यासा के साउंडट्रैक को विश्व सिनेमा के सर्वश्रेष्ठ फिल्म-संगीत में शामिल किया था , जो इसकी संगीतात्मक उत्कृष्टता का प्रमाण है। आइए इसके कुछ यादगार गीतों पर नज़र डालें:

  • “ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है” – यह फिल्म का आखिरी गीत/कविता है जो विजय स्मृति-सभा में गाते हैं। मोहम्मद रफ़ी की उदास आवाज़ में साहिर के तीखे बोल इस गीत को रोंगटे खड़े कर देने वाला बनाते हैं। इसके बोलों में दुनिया के धन-दौलत और सत्ता को धिक्कारते हुए इंसानियत की कमी पर सवाल उठाया गया है – “ये महलों ये तख्तों ये ताजों की दुनिया… दुश्मन है इंसानियत के ये रिवाज़ों की दुनिया… ये दौलत के भूखे ही लोगों की दुनिया…!” अंत में प्रश्नवाचक पंक्ति “तो क्या है!” जैसे पूरी भीड़ के मुंह पर तमाचा मारती है। फिल्मांकन की दृष्टि से यह गीत चरम भावनात्मक क्षण है – गुरुदत्त ने क्लोज़-अप और लंबे शॉट के संयोजन, धीमी लय से तीव्र गति तक संपादन और रफ़ी की आवाज़ के उतार-चढ़ाव को मिलाकर इसका प्रभाव बेहद शक्तिशाली बना दिया । यह गीत प्यासा का थीम सॉन्ग भी बन गया है, जो आज भी अन्याय के विरुद्ध एक एंथम की तरह गूंजता है।
  • “जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला” – यह विजय का गाया एक दुख भरा नग़मा है जो उसकी असफल मोहब्बत और टूटी उम्मीदों को बयां करता है। इसे हेमंत कुमार ने अपनी गहरी आवाज़ में गाया है, और गीत के बोलों में विजय आश्चर्य करता है कि कैसे कुछ लोगों को प्यार नसीब होता है और कुछ को नहीं। फिल्म में यह गीत उस सीन पर फिल्माया गया है जब विजय श्री घोष के घर में एक पार्टी में मेहमानों का मनोरंजन करने के लिए मजबूर होता है। वह ये गीत अपनी पूर्व प्रेमिका मीना की मौजूदगी में गा रहा है, और हर शब्द मीना के दिल को काटता है। गुरुदत्त ने इस गीत में पात्रों के हाव-भाव पर विशेष फोकस रखा – मीना की आँखों में छुपा पछतावा और विजय के चेहरे पर छलकता दर्द, दोनों साफ़ नजर आते हैं। संगीत संयोजन भी न्यूनतम रखा गया है ताकि बोलों की गहराई उभरकर आए। “जाने वो कैसे लोग थे…” हिंदी सिनेमा के सदाबहार विरह-गीतों में गिना जाता है, जो सुनने वालों को एक गहरी कसक दे जाता है।
  • “जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं” – यह गीत एक तेज़-तर्रार समाजी कविता है जिसे रफ़ी ने गाया है। फिल्म में इसे वेश्यालय के दृश्य में पिरोया गया है, जहां विजय देखता है कि नाचने-गाने वाली लड़कियों के दुख पर कोई ध्यान नहीं देता। मंच पर एक तवायफ सुर में गा रही है कि जिन्हें अपने देश पर नाज़ (गौरव) है, वे कहाँ हैं – यानी देशभक्ति का दावा करने वाले लोग इन बेसहारा औरतों की दुर्दशा से आंखें मूंदे हुए हैं। इस गीत के बोल साहिर की कलम के perhaps सबसे तंज़ भरे और धारदार शब्दों में हैं, जो सुनने वालों को झकझोर देते हैं। संगीत की दृष्टि से इसमें एक वीर रस और करुण रस का मेल है – ढोलक की बीट पर तीखे अल्फ़ाज़। दृश्य में गुरुदत्त ने गीत की पंक्तियों के साथ-साथ हालात के विरोधाभास दिखाए हैं: ऊपर कोठे पर गीत चल रहा है, नीचे एक बीमार बच्चा रो रहा है और एक मजबूर माँ ख़ुद को बेचने को मजबूर है । “जिन्हें नाज़ है हिंद पर…” प्यासा के सामाजिक जागरण पक्ष को सबसे प्रबल तरीके से सामने लाता है, जो उस दौर की फिल्मों में बहुत दुर्लभ था।
  • “सर जो तेरा चक्राए” – यह एक हल्का-फुल्का मज़ेदार गीत है जिसे जॉनी वॉकर पर फिल्माया गया है। रमेश के साथियों द्वारा गाया जा रहा यह गीत एक नाई (मसाजवाले) के नजरिये से है जो कहता है कि “सर जो तेरा चकराए, या दिल डूबा जाए – आजा प्यारे पास हमारे काहे घबराए”। यह गीत फिल्म में कॉमिक रिलीफ़ देता है और दर्शकों को मुस्कुराने का मौका प्रदान करता है। संगीतकार एस.डी. बर्मन ने इसमें हास्य के अनुरूप मस्त धुन बनाई और रफ़ी ने इसे चुलबुले अंदाज़ में गाया। कहानी में यह गीत ऐसे मोड़ पर आता है जहाँ फिल्म की गंभीरता को थोड़ी देर के लिए संतुलित करना था। जॉनी वॉकर के खास शैली के अभिनय और हल्के-फुल्के बोलों के कारण यह गीत आज तक लोकप्रिय है। एक रोचक तथ्य यह है कि इस गीत के निर्माण में एस.डी. बर्मन के बेटे राहुलदेव बर्मन (आर.डी. बर्मन) ने भी सहयोग दिया था – कुछ संगीत इतिहासकार मानते हैं कि सर जो तेरा चकराए की धुन पंचम (आर.डी.) की प्रतिभा का शुरुआती नमूना थी। यह गीत इस बात का उदाहरण है कि कैसे प्यासा जैसी संजीदा फिल्म में भी मनोरंजन के तत्त्व समाहित थे, लेकिन वे कहानी से असंगत नहीं होते।
  • “हम आपकी आँखों में इस दिल को बसा दें तो” – जैसा कि पहले वर्णन हुआ, यह फिल्म का ड्रीम-सीक्वेंस गीत है। इसे गीता दत्त और मोहम्मद रफ़ी ने गाया है। गीत के बोल छेड़छाड़ भरे रूमानी हैं, जिसमें प्रेमी-प्रेमिका कल्पना में मिलते हैं और एक-दूसरे को छेड़ते हैं। साहिर ने इसके शब्दों में नज़ाकत भरा हास्य पिरोया है – हीरोइन हर शरारत पर कोई न कोई बहाना बनाती है (जैसे “नैनाश FAका पेहरादार हो…”), और नायक उसे मनाने की कोशिश करता है। यह गीत मीना और विजय के अधूरे प्यार की पूर्वपीठिका है – सपने में भले वे मिल लें, पर असलियत में उनकी राहें जुदा हो चुकी हैं। गुरुदत्त ने इसको अद्भुत सेट और सिनेमैटोग्राफी के जरिए अमर बना दिया है (जिसका विवरण ऊपर निर्देशन खंड में है)। संगीत की दृष्टि से एस.डी. बर्मन ने इसे पश्चिमी शैली के Waltz और हिंदी शास्त्रीय मिश्रण से तैयार किया, जो इसे एक अलौकिक एहसास देता है। गीत सुनने में हल्का-फुल्का लगता है, लेकिन कहानी के संदर्भ में देखें तो इसके अंत में मीना का विजय को छोड़ ऊपर चले जाना भविष्य की त्रासदी का सूचक है । यही सूक्ष्मता इस गीत को यादगार बनाती है।
  • “आज सजन मोहे अंग लगा लो” – यह एकमात्र गीत है जो पर्दे पर नायिका (गुलाबो) द्वारा सीधे नहीं गाया जाता, बल्कि पार्श्व में बजता है। इसे गीता दत्त ने बड़े ही भावपूर्ण तरीके से गाया है। गीत के बोल राधा-कृष्ण की भक्ति भाव से ओतप्रोत हैं, लेकिन संदर्भ गुलाबो और विजय के मिलन से जुड़ता है। जब विजय पागलखाने में है, तब पार्श्व में यह भजन सुनाई देता है – “आज सजन मोहे अंग लगा लो… जनम सफल हो जाए”, मानो गुलाबो ईश्वर से प्रार्थना कर रही हो कि आज उसके प्रिय को गले लगाने दो ताकि उसका जीवन सफल हो जाए। वहीदा रहमान ने इस गीत में आंखों से अश्रुधारा और चेहरे पर वेदना लिए, बिना शब्दों के दिल की बात कह दी। संगीत संयोजन धीमा और मधुर है, सितार और बांसुरी के प्रयोग से एक अध्यात्मिक वातावरण रचा गया। यह गीत फिल्म में अत्यंत मार्मिक मोड़ पर आता है और दर्शकों की आँखें नम कर देता है। गुरुदत्त की फिल्मों की खासियत थी कि वे नायिका के भावनात्मक गानों को बेहद संवेदनशीलता से फिल्माते थे – प्यासा में यह भजन उस परंपरा को आगे बढ़ाता है।

संगीत की गुणवत्ता के अलावा प्यासा के गीतों का बड़ा श्रेय इसके गीतकार साहिर लुधियानवी को जाता है, जिनकी शायरी ने फिल्म को अद्वितीय आत्मा दी। साहिर के लिखे शेरो-शायरी बेजोड़ हैं – उन्होंने उस समय प्रचलित फिल्मी गीतों के उलट, प्रेम में मिलन-विरह के साथ-साथ सामाजिक विषमताओं, आर्थिक असमानता और मानवीय दर्द को भी अल्फ़ाज़ दिए । उस दौर में अधिकतर हिंदी फिल्मी गीत रूपमती नायिका, शराब और शबाब तक सीमित थे, लेकिन प्यासा के गीतों ने भूख, गरीबी, बेबसी और आदर्शवाद को जगह दी । ऐसा करने के लिए साहिर को “कम्युनिस्ट” या वामपंथी तक कहा गया, लेकिन दरअसल वे जमाने की झूठी नैतिकताओं के खिलाफ एक क्रांतिकारी कलम थे । प्यासा में उनके लिखे नग़मे सीधे आम लोगों के दिल को छू गए थे – रिलीज़ के बाद लोगों ने इन गीतों में अपनी आवाज़ पहचानी, जिसका अंदाज़ा इस बात से लगता है कि दिल्ली के रिगल सिनेमा में कुछ हफ्तों बाद फिल्म के पोस्टर पर सितारों की तस्वीर की जगह साहिर के गीतों के अंश छपने लगे थे । संगीतकार एस.डी. बर्मन ने भी साहिर के बोलों को सदाबहार धुनों में पिरोया। दिलचस्प है कि प्यासा में साहिर-बर्मन की जोड़ी ने अपना सर्वोत्तम काम दिया, पर इसके तुरंत बाद मतभेदों के चलते यह जोड़ी टूट गई (जिसका ज़िक्र आगे ट्रिविया में है) । कुल मिलाकर, प्यासा के संगीत और कविताओं ने फिल्म के संदेश को चार चांद लगा दिए – हर गीत एक कथा है, एक भाव है, जो फिल्म खत्म होने के बाद भी दर्शकों के मन में गूंजते रहते हैं।

ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व

प्यासा केवल एक फिल्म नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक धरोहर बन चुकी है। इस फिल्म ने आने वाली पीढ़ियों के कलाकारों और सिनेप्रेमियों पर गहरा असर डाला। ऐतिहासिक रूप से देखें तो 1950 का दशक हिंदी सिनेमा का स्वर्णिम दौर माना जाता है और प्यासा उस युग के शिखर पर विराजमान तीन–चार फिल्मों में से एक है (अन्य उदाहरण: मदर इंडिया (1957), बिमल रॉय की सामाजिक फिल्में, राज कपूर की प्रारंभिक फिल्में)। प्यासा की सफलता ने साबित किया कि एक संजीदा, कविता प्रधान और आदर्शवाद से भरी फिल्म भी व्यावसायिक रूप से कामयाब हो सकती है – इसने गुरुदत्त को आगे चलकर और भी नए प्रयोग करने का हौसला दिया। हालाँकि गुरुदत्त की अगली ड्रीम प्रोजेक्ट कागज़ के फूल (1959) बॉक्स ऑफिस पर असफल रही, प्यासा ने उनकी ख्याति अमर कर दी।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्यासा को जो सम्मान मिला, वह बहुत कम भारतीय फिल्मों के हिस्से में आया है। 2005 में टाइम मैगज़ीन ने इसे अब तक की 100 सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों (All-Time 100 Movies) में जगह दी – और गौरतलब है कि इस प्रतिष्ठित सूची में शामिल होने वाली यह एकमात्र हिंदी फिल्म थी। इतना ही नहीं, कई समीक्षक इसे विश्व सिनेमा की क्लासिक के तौर पर मानते हैं। दुनियाभर के फिल्म त्योहारों और विशेष आयोजनों में प्यासा दिखाई जाती रही है। 2015 में इसका डिजिटल रीस्टोर किया गया प्रिंट वेनिस फिल्म फेस्टिवल में प्रदर्शित हुआ था (सूत्रों के अनुसार), जहाँ अंतरराष्ट्रीय दर्शकों ने इसे खड़े होकर तालियाँ (standing ovation) दीं।

भारतीय संदर्भ में प्यासा को 2002 में एक मीडिया सर्वेक्षण ने “सदी की टॉप 10 बॉलीवुड फिल्मों” में शामिल किया था और इंडियाटाइम्स ने भी इसे 25 अवश्य देखने योग्य बॉलीवुड फिल्मों की सूची में जगह दी । फिल्म के संवाद और गीत आम जन-जीवन का हिस्सा बन गए – “ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है” जैसे जुमले आज भी प्रचलित हैं जब कोई व्यक्ति भौतिकता को ठुकराना चाहता है। विजय का आदर्शवादी कवि वाला किरदार भारतीय सिनेमा में “कला के प्रति समर्पित नायक” का आदर्श बन गया, जिसकी छवि आगे चलकर कई फिल्मों में दिखी। उदाहरण के लिए, 1980 के दशक में बनी नया दौर (यदि ज़िक्र करें) में भी कलाकार बनाम व्यावसायिकता का भाव था (वैसे नया दौर प्यासा से पहले 1957 में ही आई थी, पर दोनों में समान सोच थी)।

इसके अलावा, प्यासा ने यह भी साबित किया कि सिनेमा सामाजिक टिप्पणी करने का सशक्त माध्यम है। आज़ादी के बाद के भारत में फिल्मों से अधिकतर मनोरंजन की उम्मीद की जाती थी, लेकिन प्यासा जैसी फिल्म ने जनता के बीच बहस छेड़ दी – गरीबी, शोषण, कला का महत्व, स्त्री की गरिमा जैसे विषयों पर सोचने को मजबूर किया। कई आलोचक प्यासा की तुलना ख़्वाजा अहमद अब्बास की समान विचारधारा वाली फिल्मों और यहां तक कि पश्चिम में Citizen Kane जैसी सिनेमाई उपलब्धियों से करते हैं। वास्तव में, प्यासा का अंत जहां नायक fame और materialism को ठुकरा देता है, उसे कुछ हद तक फ्रैंक कैप्रा की फिल्म Meet John Doe (1941) से प्रेरित माना गया है, जिसमें नायक पब्लिक स्पॉटलाइट में आकर सच्चाई बयान करता है । पर गुरुदत्त ने उसे भारतीय सन्दर्भ में ढाला और एक अनूठी संवेदना उत्पन्न की।

आज की दृष्टि से देखें तो प्यासा 65+ वर्ष बाद भी प्रासंगिक महसूस होती है। कलाकारों की दुर्दशा, समाज का दिखावा, सच्चे प्यार की तलाश – ये सब विषय आज भी हमें सोचने पर मजबूर करते हैं। नई पीढ़ी भले ही गुरुदत्त की फिल्मों से सीधे परिचित न हो, लेकिन प्यासा के गीत-संगीत उनके कानों में कभी न कभी पड़ ही जाते हैं और कहीं न कहीं इसके असर से वो भी रूबरू होते हैं । फिल्म शोधकर्ता और विद्यार्थी प्यासा को एक अध्ययन के तौर पर देखते हैं – इसके सिनेमैटिक शिल्प, इसकी कथा संरचना और इसके सामाजिक संदर्भों पर थिसिस लिखे गए हैं। ये फिल्म भारतीय सिनेमा में यथार्थवाद और काव्यात्मकता के संयोग का प्रतीक बन गई है। गुरुदत्त और साहिर जैसे कलाकारों की विरासत प्यासा के माध्यम से ही आगे बढ़ी। संक्षेप में, प्यासा की ऐतिहासिक-सांस्कृतिक महत्ता इस बात में निहित है कि यह सिर्फ अपने दौर की बेहतरीन फिल्म नहीं थी, बल्कि आने वाले दशकों के सिनेमा को दिशा देने वाली प्रेरणा थी। यह फिल्म एक सिनेमा प्रेमी के लिए ज्ञान, भावनात्मक अनुभव और आत्ममंथन – तीनों को एक साथ प्रस्तुत करने वाली दुर्लभ कृति है।

यादगार संवाद

प्यासा अपने सशक्त गीतों की तरह ही तीखे और दिल छू लेने वाले संवादों के लिए भी जानी जाती है। गुरुदत्त, अबरार अल्वी और साहिर लुधियानवी की त्रयी ने मिलकर ऐसे संवाद रचे जो आज भी प्रासंगिक हैं। यहां फिल्म के कुछ बेहतरीन संवाद (प्रसिद्ध और कम चर्चित दोनों तरह के) प्रस्तुत हैं:

  • विजय: “गर्मी चाहे मौसम की हो या दौलत की, सिर्फ गधे ही मगन रहते हैं उसमें!” – (चाहे मौसम की गर्मी हो या पैसे की, सिर्फ गधे ही उसमें खुश रह सकते हैं) . यह व्यंग्यात्मक लाइन विजय किसी अमीर शख्स को ताना मारते हुए कहता है, जो उसकी बदहाली पर इतराता है। सीधे-सादे शब्दों में वह दौलत के नशे को बेवकूफों की ख़ुशी कह देता है। आज भी यह संवाद जब-तब उद्धृत होता है।
  • शायर (घोष की महफ़िल में): “अपनी शायरी से क़ौम-ओ-वतन को तरक़्क़ी देना… खोखली मोहब्बत के ढोल पीटने से कहीं बेहतर है।” – (अपनी शायरी के जरिए क़ौम और वतन को तरक़्की देना, खोखली मोहब्बत के ढोल पीटने से कहीं बेहतर है). यह संवाद एक अन्य कवि द्वारा कहा गया है जब विजय की सामाजिक विषयों पर कविता को कुछ लोग तुच्छ समझते हैं। इसका अर्थ है कि कविता का उपयोग समाज और राष्ट्र की उन्नति के लिए करना बेकार के प्रेम राग अलापने से बेहतर है। यह पंक्ति फिल्म के थीम को प्रतिध्वनित करती है और आज भी साहित्यिक चर्चाओं में उद्धृत होती है।
  • विजय (गुलाबो से): “हाल संभलने के बाद चला जाऊँ?! अब तो चले जाने के बाद ही ये हालत संभलेगी, गुलाब!” – (तुम कहती हो कि हालत ठीक होने पर मैं चला जाऊँ – अब तो मेरे चले जाने के बाद ही हालत संभलेगी, गुलाब!). ये कड़वे बोल विजय निराशा में गुलाबो से कहता है। गुलाबो उसे समझाने की कोशिश करती है कि समय के साथ सब ठीक हो जाएगा, तो विजय यह दर्दनाक बात कहता है कि शायद उसकी गैरहाज़िरी (या मौत) के बाद ही सबको चैन मिलेगा। इसमें विजय की गहरी हताशा झलकती है और ये संवाद दर्शक के दिल को छू जाता है।
  • विजय (मीना के बारे में, गुलाबो से): “मीना? जगमगाती सोसाइटी की एक शरीफ़ औरत, जो अपने शौक के लिए प्यार करती है और अपने आराम के लिए प्यार बेचती है।” – विजय यह कटाक्ष भरी परिभाषा मीना के चरित्र के लिए देता है। वह गुलाबो के सवाल पर कि मीना कौन है, जवाब देता है – मीना चमक-दमक वाली सोसाइटी की एक भद्र महिला है, जो शौक के लिए प्यार करती है और आराम (सुख-सुविधा) के लिए उस प्यार को बेच देती है। इस एक लाइन में विजय ने मीना के पूरे द्वंद्व को बयां कर दिया – मीना ने प्यार तो किया था, लेकिन अंत में आराम के लिए उसे छोड़ा भी। ये संवाद अपने तीखेपन के लिए जाना जाता है और मीना के फैसले पर विजय के दर्दनाक व्यंग्य को दर्शाता है।
  • विजय (अंतिम मोनोलॉग से): “मुझे किसी इंसान से कोई शिकायत नहीं… मुझे शिकायत है समाज के उस ढांचे से, जो इंसान से उसकी इंसानियत छीन लेता है, मतलब के लिए अपने भाई को बेगाना बनाता है, दोस्त को दुश्मन बनाता है… मुझे शिकायत है उस तहज़ीब से, उस संस्कृति से… जहाँ मुर्दों को पूजा जाता है और ज़िंदा इंसान को पैरों तले रौंदा जाता है… जहाँ किसी के दुःख-दर्द पर दो आँसू बहाना बुज़दिली समझा जाता है, झुक के मिलना एक कमज़ोरी समझा जाता है… ऐसे माहौल में मुझे कभी शांति नहीं मिलेगी, मीना! कभी शांति नहीं मिलेगी, इसलिए मैं दूर जा रहा हूँ!” – ये फिल्म के चरम क्षणों में विजय द्वारा बोले गए कालजयी शब्द हैं। वह पूरी दुनिया के सामने अपने दिल की भड़ास निकालता है। इन पंक्तियों में विजय समाज की बुनियादी खामियों पर प्रहार करता है – वह कहता है उसे किसी व्यक्तिगत आदमी से शिकायत नहीं, बल्कि उस सिस्टम से है जो इंसानियत को खत्म कर देता है; जहां अपना स्वार्थ पाने के लिए भाई-भाई नहीं रहता, दोस्त दुश्मन बन जाता है; जहां मृतकों की पूजा और जीते-जी इंसान की बेइज़्ज़ती होती है; जहां दूसरों के दर्द पे रोना कमजोरी माना जाता है और झुककर मिलना बेइज्जती। विजय अंत में मीना को मुखातिब होकर कहता है कि ऐसे माहौल में उसे कभी शांति नहीं मिलेगी, इसलिए वह सबको छोड़कर जा रहा है। इस मोनोलॉग के हर शब्द में समाज के प्रति उसका रोष और पीड़ा झलकती है। यह हिंदी सिनेमा के सबसे मशहूर मोनोलॉग्स में से एक बन गया है, जिसे संवाद लेखन की उत्कृष्टता का उदाहरण माना जाता है।
  • विजय – “मैं दूर जा रहा हूँ, गुलाब!” ; गुलाब – “कहाँ?” ; विजय – “…जहाँ से मुझे फिर दूर ना जाना पड़े!” – ये अंतिम संवादों का अंश है जब विजय और गुलाबो अंत में स्टेशन (या मोड़) पर खड़े होकर नए सफर की ओर जाने को तैयार हैं। गुलाबो व्याकुल होकर पूछती है वह कहाँ जाएगा, तो विजय जवाब देता है – “जहाँ से मुझे फिर दूर न जाना पड़े।” इस कथन में विजय का थकान भरा संतोष है कि उसने आखिरकार उस दुनिया को छोड़ दिया है जिसने उसे बार-बार बेगाना बनाया; अब वह ऐसी जगह जाएगा (संकेततः गुलाबो के दिल में या अनजानी मंज़िल की ओर) जहां बार-बार बिछड़ने का दर्द नहीं झेलना पड़ेगा। यह संवाद कम कहा हुआ लेकिन गहरे अर्थों वाला है, और फिल्म खत्म होते-होते दर्शक के मन में एक हल्की सी उम्मीद छोड़ जाता है कि शायद विजय-गुलाबो को सुकून मिले।

इन संवादों के अलावा पूरी फिल्म में कई मार्मिक और चुभने वाले डायलॉग हैं। साहिर की शायरी तो हर मोड़ पर है ही – मसलन “तंग आ चुके हैं कश्मकश-ए-ज़िंदगी से हम…” जैसी पंक्तियाँ विजय गुनगुनाता है । प्यासा के संवादों की खासियत है कि वे कविता और आमफहम बोली का सुंदर मेल हैं – कभी सरल व्यंग्य से बात कहते हैं, तो कभी शायराना अंदाज़ में दिल चीर देते हैं। यही वजह है कि इसके डायलॉग्स आज भी उतने ही असरदार लगते हैं जितने 1957 में रहे होंगे।

पर्दे के पीछे की बातें और रोचक ट्रिविया

इस महान फिल्म के निर्माण से जुड़े कई दिलचस्प किस्से और तथ्य हैं, जो प्यासा को और भी ख़ास बनाते हैं:

  • “कशमकश” से “प्यासा” तक: प्यासा की मूल कहानी गुरुदत्त ने युवावस्था (1947-48) में एक रूपरेखा के तौर पर लिखी थी, जिसका शीर्षक “कशमकश” (संघर्ष) था । यह कहानी खुद गुरुदत्त के प्रारंभिक संघर्षों और आदर्शवाद से प्रेरित थी। बाद में जब फिल्म बनाने की तैयारी हुई, तो पटकथा लेखक अबरार अल्वी के साथ मिलकर स्क्रिप्ट में कई बदलाव हुए – शुरुआती रूप में नायक एक कवि नहीं बल्कि चित्रकार रखा गया था, जिसे बदला गया । पहले इस फिल्म का नाम “प्यास” सोचा गया था, लेकिन गुरुदत्त को लगा कि सिर्फ प्यास (भूख/तृष्णा) कहना पूरी भावना नहीं समेटता। उन्होंने शीर्षक बदलकर “प्यासा” (प्यास से व्याकुल व्यक्ति) कर दिया ताकि नायक की तड़प और पूरी फिल्म के भाव को सही तरह दर्शाया जा सके । दिलचस्प है कि कशमकश यानी संघर्ष की भावना तो फिल्म में रही, साथ ही “प्यासा” शीर्षक ने प्रेम और मानवीय प्यास को रूपक के तौर पर पकड़ लिया। यह नामांकन फिल्म की थीम के बिलकुल अनुरूप साबित हुआ।
  • साहिर लुधियानवी की ज़िंदगी की झलक: ऐसा माना जाता है कि प्यासा की कहानी आंशिक रूप से प्रसिद्ध शायर साहिर लुधियानवी से प्रेरित थी । साहिर स्वयं एक आदर्शवादी कवि थे जिनका एक अधूरा प्रेम प्रसंग लेखिका अमृता प्रीतम से हुआ था – ये कहानी साहित्य जगत में विख्यात है। प्यासा में विजय और मीना का संबंध कहीं न कहीं साहिर-अमृता की छाया लिए हुए है। इतना ही नहीं, फिल्म के कई गीत साहिर की प्रकाशित कविता संग्रह “तल्खियाँ” से लिए विचारों पर आधारित हैं । कहते हैं कि गुरुदत्त ने साहिर की रचनाओं को पढ़कर ही इस फिल्म का खाका बुना था। हालांकि प्यासा पूरी तरह साहिर की बायोग्राफी नहीं है, लेकिन साहिर के बाग़ी तेवर, समाज से भिड़ने का मिज़ाज और दर्दभरे इश्क़ की झलक विजय के किरदार में दिखती है । इस तरह, साहिर लुधियानवी पर्दे पर नज़र न आते हुए भी पूरी फिल्म की आत्मा में बसे हुए हैं।
  • गुलाबो का वास्तविक प्रेरणा स्रोत: फिल्म में वहीदा रहमान द्वारा निभाया गया गुलाबो का किरदार असल ज़िंदगी की एक घटना से प्रभावित है। पटकथा लेखक अबरार अल्वी ने एक बार बंबई (मुंबई) के रेड लाईट इलाके में समय बिताया था जहां उनकी मुलाकात एक वेश्या से हुई, जिसने अपना नाम “गुलाबो” बताया । अल्वी ने बताया कि उन्होंने उस स्त्री से सामान्य इंसानों जैसा बर्ताव किया, तो विदा लेते समय वह भावुक होकर बोली – “आज पहली बार किसी ने मुझे इज्जत से बात की है।” गुलाबो की यह टूटती हुई आवाज़ और शब्द अबरार अल्वी के ज़ेहन में रह गए और प्यासा में हूबहू उन्हीं शब्दों को डायलॉग के रूप में शामिल किया गया । यही नहीं, फिल्म की गुलाबो का विनम्र स्वभाव और सम्मान की भूख भी उस अनाम वास्तविक युवती से प्रेरित थी। इस किस्से से पता चलता है कि किस तरह गुरुदत्त और उनकी टीम ज़िंदगी के कड़वे सच को बड़े पर्दे पर लाने के लिए सच्चे किस्सों से जुड़ाव रखते थे।
  • दिलीप कुमार का इंकार: शुरुआत में गुरुदत्त चाहते थे कि इस फिल्म में नायक विजय की भूमिका प्रसिद्ध अभिनेता दिलीप कुमार निभाएं । दिलीप कुमार उस समय “ट्रेजेडी किंग” के नाम से मशहूर थे और देवदास (1955) जैसी दुखांत फिल्म में अभिनय कर चुके थे। परंतु लगातार गमगीन भूमिकाएँ निभा-निभाकर वे भावनात्मक रूप से थक चुके थे, इसलिए उन्होंने विजय का किरदार करने से मना कर दिया । एक कारण यह भी बताया जाता है कि दिलीप कुमार और गुरुदत्त के बीच फिल्म के वितरण अधिकारों को लेकर भी सहमति नहीं बन पाई । दिलचस्प बात ये है कि बाद में दिलीप साहब ने एक साक्षात्कार में स्वीकारा कि प्यासा को ठुकराना उनकी सबसे बड़ी भूलों में एक था और यह किरदार उन्हें देवदास जैसा ही लगा था । दिलीप के इंकार के बाद गुरुदत्त ने स्वयं विजय का रोल करने का फैसला किया – जो उनके करियर की सर्वश्रेष्ठ अभिनय भूमिकाओं में गिना गया। बहरहाल, फिल्म की सफलता ने सिद्ध किया कि गुरुदत्त का चयन सही था। विजय के रूप में गुरुदत्त की छवि इतनी दृढ़ हो गई कि आज इस किरदार की कल्पना दिलीप कुमार के साथ करना मुश्किल लगता है।
  • नई अभिनेत्रियों का चयन: प्यासा में दो प्रमुख नायिकाओं – मीना और गुलाबो – की भूमिकाओं के लिए गुरुदत्त शुरुआत में बड़ी स्टार कलाकारों को लेना चाहते थे। एक वक्त पर यह चर्चा थी कि नर्गिस और मधुबाला में से किसी एक को मीना और दूसरी को गुलाबो का रोल दिया जाए । परंतु दोनों ही दिग्गज अभिनेत्रियाँ गुलाबो का किरदार निभाने में झिझक रही थीं, और दोनों मीना की भूमिका चाहती थीं। इस उलझन के चलते अंततः गुरुदत्त ने जोखिम उठाते हुए अपेक्षाकृत नई प्रतिभाओं को मौका देने का निर्णय किया । मीना के रोल के लिए माला सिन्हा को चुना गया, जो तब तक कुछ फिल्मों में काम कर चुकी थीं पर बहुत बड़ी स्टार नहीं थीं। गुलाबो के रोल के लिए हैदराबाद से आईं नवोदित वहीदा रहमान पर दांव लगाया गया – जिन्हे गुरुदत्त ने अपनी पिछली फिल्म CID (1956) में एक छोटा रोल देकर लॉन्च किया था । कहा जाता है गुरुदत्त वहीदा रहमान की प्रतिभा और स्क्रीन उपस्थिति को लेकर आश्वस्त थे। प्यासा की रिलीज़ के बाद वहीदा रहमान रातोंरात मशहूर हो गईं और यह उनकी पहली महत्त्वपूर्ण भूमिका साबित हुई । आज यह सोचना दिलचस्प है कि अगर मधुबाला-नर्गिस जैसी बड़ी अभिनेत्रियाँ होतीं तो शायद गुलाबो और मीना के किरदारों को उतनी ताज़गी न मिलती। नए चेहरों ने इन चरित्रों को एक विश्वसनीयता दी, और दर्शक उन्हें मीना व गुलाबो के रूप में स्वीकार सके।
  • कलकत्ता के कोठों में शूटिंग का अनुभव: गुरुदत्त अपनी फिल्मों में प्रामाणिकता चाहते थे। प्यासा के “जिन्हें नाज़ है हिंद पर” गीत और संबंधित वेश्यालय वाले दृश्यों को असली माहौल में फिल्माने के लिए वे दल लेकर कलकत्ता (कोलकाता) के रेड लाइट इलाके में गए थे । पर वहाँ उन्हें अप्रत्याशित प्रतिरोध का सामना करना पड़ा – स्थानीय दलालों (पिम्प्स) ने फिल्म की टीम पर हमला कर दिया और शूटिंग करने से रोक दिया । स्थिति बिगड़ती देख गुरुदत्त को वापस मुंबई लौटना पड़ा। इसके बाद उन्होंने कोलकाता के उस इलाके की तस्वीरें और रिकॉर्ड किए गए फुटेज के आधार पर मुंबई के स्टूडियो में हूबहू सेट तैयार कराया । फिल्म देखकर अंदाज़ा लगाना मुश्किल है कि वो वास्तविक लोकेशन नहीं बल्कि सेट है, क्योंकि गुरुदत्त और वी.के. मूर्ति ने रोशनी और कैमरे से उसे असली रूप दे दिया। यह घटना दिखाती है कि प्यासा की टीम किन चुनौतियों से गुज़री, पर उन्होंने अपने विज़न से समझौता नहीं किया।
  • अंत बदलने की नौबत: गुरुदत्त शुरुआत में इस फिल्म का अंत काफी निराशाजनक रखना चाहते थे – उनके मूल विचार में विजय अंत में सभी से दूर अकेला भटकता दिखाई देता, बिना गुलाबो के साथ गए । यह एक अत्यंत दर्दनाक लेकिन ईमानदार समापन होता, जो उस समय की प्रचलित फ़िल्मी सुखांत से बिलकुल हटकर था। मगर वितरकों और कुछ साथियों को चिंता हुई कि दर्शक इतने डार्क अंत को स्वीकार नहीं करेंगे। काफी विचार-विमर्श के बाद गुरुदत्त ने अंतिम दृश्य में थोड़ा सुधार किया – विजय को गुलाबो का साथ मिल गया, ताकि एक किरण उम्मीद की दिखे । इस बदलाव पर भी आंतरिक मतभेद थे – लेखक अबरार अल्वी चाहते थे कि नायक समाज से समझौता कर ले (मीना के पास लौट जाए) जबकि गुरुदत्त बिल्कुल विपरीत सोच रखते थे । अंततः गुरुदत्त के दृष्टिकोण ने जीत दर्ज की, पर उन्होंने वितरक की सलाह भी मानी और विजय को पूरी तरह त्रासद अंत देने की बजाय गुलाबो के साथ भविष्य की ओर बढ़ते दिखाया। दिलचस्प बात यह है कि फिल्म के अंत में उड़ते पांडुलिपि के पन्नों वाला शॉट मूल तौर पर मीना को केंद्र में रखकर सोचा गया था (शायद एक कल्पना दृश्य), लेकिन अंतिम संस्करण में उसे विजय-गुलाबो पर लागू किया गया । बहरहाल, आज हमें जो अंत दिखता है वह सटीक लगता है – इसमें विजय के आदर्श नहीं झुकते और दर्शकों को थोड़ा सुकून भी मिलता है कि कम से कम उसे प्रेम का साथ मिला। यह ट्रिविया इसलिए खास है क्योंकि यह गुरुदत्त की रचनात्मक दृढ़ता और व्यावसायिक बुद्धिमत्ता के तालमेल को दर्शाता है।
  • साहिर बनाम एस.डी. बर्मन – आखिरी सहयोग: प्यासा अद्भुत गीतों का नतीजा थी, लेकिन इसके तुरंत बाद इसके संगीतकार सचिन देव बर्मन और गीतकार साहिर लुधियानवी के बीच मनमुटाव हो गया। दोनों अपने-अपने फन के उस्ताद थे और प्यासा उनकी 18वीं फिल्म थी साथ में । मगर इस प्रोजेक्ट के दौरान एक ऐसी तकरार हुई कि उन्होंने फिर कभी साथ काम नहीं किया । मशहूर है कि साहिर को लगता था कि प्यासा की सफलता में उसके बोलों का अहम योगदान है, वहीं एस.डी. बर्मन अपने संगीत को कम नहीं आंकना चाहते थे। इस क्रेडिट को लेकर उनकी अनबन इतनी बढ़ी कि दोनों की राहें जुदा हो गईं । एक और किस्सा ये है कि मुंबई के रीगल सिनेमा में प्यासा के पोस्टर कुछ हफ्तों बाद बदले गए और उनमें हीरो-हीरोइन की तस्वीरों की बजाय साहिर के लिखे गीतों की पंक्तियाँ प्रमुखता से छापी गईं – इससे बर्मन दा नाराज़ हो गए क्योंकि उन्हें लगा संगीतकार की अहमियत कम कर दी गई। बहरहाल, प्यासा हिंदी फिल्म इतिहास में साहिर-बर्मन की आखिरी और सबसे यादगार साझा कृति बनी। इसके बाद जहां साहिर ने एन. दत्ता व रवि जैसे संगीतकारों के साथ काम किया, वहीं बर्मन दा ने शैलेंद्र, मजरूह जैसे अन्य गीतकारों संग जोड़ी बनाई। इस दिलचस्प पहलू से पता चलता है कि महान कलाकरों के बीच भी रचनात्मक ईगो टकरा सकते हैं, पर इसका परिणाम कभी-कभी ऐसे मास्टरपीस के रूप में निकलता है।
  • रिलीज और पोस्टर प्रसंग: प्यासा की रिलीज़ की शुरुआत अपेक्षाकृत धीमी रही थी। गुरुदत्त ने प्रचार पर ज्यादा खर्च नहीं किया था, और फिल्म एक कमर्शियल पॉटबॉयलर की तरह नहीं बल्कि ऑफबीट अंदाज़ में आई। लेकिन पहले हफ्ते के बाद ही माउथ-ऑफ-वर्ड से भीड़ बढ़ने लगी और सिनेमाघरों के बाहर हाउसफुल बोर्ड लगने लगे । दिल्ली के रिगल सिनेमा में एक रोचक वाकया हुआ – शुरू में लगे पोस्टरों में गुरुदत्त और वहीदा रहमान की बड़ी तस्वीर थी और नीचे छोटे अक्षरों में संगीतकार और गीतकार का नाम। पर फिल्म के गीत-संगीत की जबरदस्त लोकप्रियता को भाँपते हुए तीसरे-चौथे हफ्ते से पोस्टरों का डिजाइन बदल दिया गया । नए पोस्टर में विशाल आकार में साहिर लुधियानवी की कविता की पंक्तियाँ छपी थीं – मानो लोग गीत पढ़कर ही खिंचे चले आएं। यह हिंदी सिनेमा में शायद पहली बार था जब किसी फिल्म के पोस्टर पर गीतकार को如此 प्रमुखता मिली। यह प्रयोग सफल रहा – इससे शो में और अधिक दर्शक उमड़ने लगे, जो साहिर के कलाम के मुरीद थे। यह घटना प्यासा के सांस्कृतिक प्रभाव को भी दिखाती है कि कैसे उसकी शायरी ने जनमानस पर जादू किया था।

इन तमाम किस्सों के अलावा और भी कई बातें प्यासा को घेरती हैं – जैसे गुरुदत्त और गीता दत्त (उनकी पत्नी, जिन्होंने फिल्म में प्लेबैक सिंगिंग की है) के व्यक्तिगत संबंधों पर इस फिल्म के असर की चर्चा, या फिर सेंसर बोर्ड के साथ कोई मतभेद (यदि हुए हों)। लेकिन कुल मिलाकर, प्यासा से जुड़े उपरोक्त तथ्य बताते हैं कि यह फिल्म कैसी परिस्थितियों में बनी और किस तरह इसके पीछे फ़नकारों का जुनून, जोखिम और रचनात्मक संघर्ष शामिल था। पर्दे पर दो घंटे में जो कहानी गुजरती है, उसके पीछे बरसों की मेहनत, सोच और कुछ हद तक किस्मत भी जुड़ी होती है – प्यासा इसका एक उत्तम उदाहरण है। यही वजह है कि इसे बनाने वालों की दास्तान खुद एक रोचक कहानी बन जाती है।

स्रोत: इस लेख में उल्लिखित जानकारी विभिन्न विश्वसनीय स्रोतों से ली गई है, जिनमें विकिपीडिया, फिल्म विश्लेषण संबंधी लेख एवं साक्षात्कार शामिल हैं। प्रमुख संदर्भों में यूनिवर्सिटी ऑफ आयोवा का इंडियन सिनेमा आर्काइव , टाइम पत्रिका व अन्य प्रकाशनों में प्यासा पर सामग्री , गुरु दत्त की जीवनी संबंधी पुस्तक के उद्धरण , तथा साहिर लुधियानवी पर लेख आदि सम्मिलित हैं। संवादों के पाठ शुभदा जामभेकर के ब्लॉग से उद्धृत हैं । सभी गीतों-सीन का वर्णन फिल्म के प्रमाणित प्रिंट के अनुक्रम पर आधारित है। इन स्रोतों और संदर्भों ने इस समीक्षा को तथ्यात्मक रूप से समृद्ध बनाने में सहायता की है।

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